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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
अहित दुःख है जातै सर्व प्राणी दुःखकू दूरि किया चाहैं हैं बहुरि दुःखका कारण है सो भी अहित ही है इहां दोऊनिका द्वंद्वसमास है। बहुरि प्राप्ति अरु परिहारका द्वंद्वसमास करणां ताकू यथासंख्य लगा. वनां, तब हितकी प्राप्ति अहितका परिहार ऐसा भया । इनि दोऊविौं समर्थ कहिये करनेकी शक्तियुक्त ऐसा । बहुरि 'हि' शब्द हेतु अर्थमैं है तातें ऐसा अर्थ भया जो हिताहितकी प्राप्ति परिहार वि. समर्थ है सो ही प्रमाण है । तातै प्रमाणपणां करि मान्यां जो वस्तु सो ज्ञानही होने योग्य है । अज्ञानरूप जे अन्यमतीनिकरि मानें सन्निकर्ष आदि प्रमाण ते हितकी प्राप्ति अहितका परिहारविर्षे समर्थ नाही तातें ते प्रमाण नाही । या सूत्रका अनुमान प्रयोग ऐसैं करना;'प्रमाण ज्ञान ही है,' यह तौ धर्मी अर साध्यके वचनरूप प्रतिज्ञा भई, बहुरि ‘हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थपणांतें' यह साधनका वचनरूप हेतु भया, बहुरि 'जो ज्ञान है सोही ऐसा है अन्य ऐसा नाही जैसैं घट आदि जड़पदार्थ' यह व्यतिरेकव्याप्तिरूप दृष्टांतका वचन सो उदाहरण भया, बहुरि 'ऐसा यह प्रमाण है' यह उपनय भया, बहुरि 'तारौं हिताहितप्राप्तिपरिहारविर्षे समर्थ जो प्रमाण सो ज्ञान ही है' यहु निगमन भया। ऐसैं पांच अवयरूप अनुमानका प्रयोग या सूत्रका होय है । इहां हेतु, असिद्ध नाही है जानै परीक्षावान पुरुष हैं ते हितकी प्राप्ति अहितका परिहारकै अर्थिही प्रमाणकू विचारें हैं, निष्प्रयोजन व्यसनमात्रही प्रमाणकी कथनी नांही करें है । ऐसैं सर्वही प्रमाणके कहनेवाले मात्रै हैं ॥२॥ __ आरौं बौद्धमती कहैं हैं जो सन्निकर्षादिक अज्ञानरूप ही प्रमाणकू मानें हैं तिनिके निराकरणकै अथि ज्ञानहीकै प्रमाणपणां कह्या सो तौ होहु याकू हम नाही निषेधै हैं, बहुरि तुम व्यवसायात्मक ज्ञानका विशेषण किया सो या वि हम युक्ति नाही देखें हैं जो यह तुम कैसे