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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। सो इहां प्रमाणनामा हेतुकै स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञाननामा साध्यतै नियम करि पाइए है सो विपक्ष जो संशयादिक तिनिविर्षे यह साध्यान्यथानुपपत्ति नाहीं है सोही बाधक प्रमाण है ताके बलते निश्चयस्वरूप है। इसही कथनतें इस हेतुकै विरुद्धपणां बहुरि अनैकान्तिकपणां भी निराकरण भया ऐसा जाननां जाते विरुद्ध हेतुकै अरु व्यभिचारी हेतुकै अविनाभावका नियमका निश्चय सो ही है लक्षण जाका ऐसी व्याप्तिका अयोग है या” प्रमाणत्वनामा हेतु तैं यथोक्त साध्यकी सिद्धि होयही है, यह केवलव्यतिरेकी हेतु है तारौं साध्य प्रति गमकही है । जैसैं ऐसे हेतु और भी कहैं हैं;-जीविता शरीर आत्मासहित है, जातै प्राणादिसहितपणा है, जो आत्मासहित नाहीं होय सो प्राणादिसहित नाही होय-श्वासोच्छासादिक्रिया जामैं नाहीं होय जैसैं मृतकशरीर, ऐसैं प्राणादिमत् पणां हेतु केवलव्यतिरेकी है याका अन्वयव्याप्तिरूप दृष्टांत नाही ता” केवलव्यतिरेकी कहिये, तैसैं प्रमाणत्वनामा हेतु भी केवलव्यतिरेकी जाननां, याकाभी अन्वयव्याप्तिरूप दृष्टांत नांही है। ___ इहां पहले कह्या था जो प्रमाण संशयादिरहित वस्तुकं जानै है संशयादिकका स्वरूप न कह्या सो ऐसे है-जो दोय पक्षमैं ज्ञान समान होय-निर्णय न होय सकै, जैसैं स्थाणु था ता वि अंधकारादिके निमित्त संशय उपज्या ‘जो यह स्थाणुहै कि पुरुष है। ऐसे दोऊ पक्षमें निश्चय न भया, जो कहा है सो तौ संशय है । बहुरि 'दोऊ पक्षमैं एकका अन्यथाका निश्चय होना सो विपर्यय है' जैसैं स्थाणु था ता विर्षे ऐसा निश्चय भया जो यहु पुरुषही है, ऐसा विपर्यय है । बहुरि अनध्यवसायजामैं चलते तृणादिका स्पर्श भया तहां ऐसा 'ज्ञान जो कछु है' ऐसैं जामैं संशय भी नांही अन्यथा निश्चय भी नाही यथार्थ निश्चय भी नांही सो अनध्यवसाय है।