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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
शब्द है सो हेतु अर्थमैं है अर याका समुदायार्थ उपरि कह्या सो जाननां ।
इहां तर्क-जो अभिधेय, संबंध, शक्यानुष्ठानइष्टप्रयोजन इन तीननि करि सहित शास्त्र होय हैं । तहां इस प्रकरणका जहां ताई अभिधेय अरु संबंध ये दोऊ न कहिये तहां ताई याका उपादेयपणां न होय-यहु ग्रहण करने योग्य न होय। इहां उदाहरण-जैसैं काहू नैं कह्या जो यह वंध्याका पुत्र जाय है, आकाशके फूलनिका जाकै मस्तक सेहुरा है, मरीचिका-भाडलीमैं स्नान करि जाय है, सुसाके सींगका धनुष धारे है, ऐसे कहनेमैं किछू वस्तु नांही अवस्तु कहे तातैं यामैं अभिधेय-अर्थ नाही । बहुरि काहूनैं कह्या-दश दाडिम हैं, छह पूवा हैं, चरवी है, छलीका चामड़ा है, मांसका पिंड है अथवा अहो देखो यह गेरू है स्पष्ट किया ताका पिता शीला होय गया ऐसे वचन कहे तिनिमैं काहूका संबंध न मिल्याप्रलापमात्र भये । ऐसें शास्त्रमैं अभिधेय सम्बन्धरहित वचन होयतौ परीक्षावान आदरै नांही । बहुरि तैसैं ही जो अशक्यानुष्ठानइष्टप्रयोजन होय जाका ग्रहण करना कठिन होय अरु अपने इष्ट होय तो जैसे सर्पका मणि सर्वज्वर–रोगका हरनहारा है ऐसे कहनेमैं रोगका हरणां तौ इष्ट है परन्तु तिसका ग्रहण करना कठिन है ऐसे वचनकू परीक्षावान आदरै नांही । तैसैंही शक्यानुष्ठान अनिष्टप्रयोजन होय, जैसैं काहू. कह्या माताका विवाह करना, तौ याका करनां तौ सुगम है परन्तु यह इष्ट नाही सो ऐसे वचन भी परीक्षावान आदरै नांही । तातैं ये तीनूं ही या शास्त्रके कहे चाहिए ?
ताका समाधान;-आचार्य कहै है जो यहु सत्य है । या प्रकरणके अभिधेय प्रमाण अरु प्रमाणभास हैं ते तौ इस श्लोकमैं प्रमाण तदाभास पदका ग्रहण” कहे ही, जातें इस प्रकरणकरि प्रमाण प्रमाणाभासकाही