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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । जसारिखा यह परीक्षामुखनाम प्रकरण रचै है । इहां न्याय ऐसा शब्द है सो 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'इण् गतौ' धातुकै घञ्प्रत्यय करण अर्थमैं जोड्या है तातें ऐसा अर्थ होय है--जो कोई प्रकार नियमकरि प्रमेयपदार्थका स्वरूप जाकरि जाणिये सो न्याय है । अथवा नयप्रमाणरूप युक्ति ताका कहनेहारा होय ताकू भी न्याय कहिये । बहुरि याका श्रीमान् विशेषण किया ताका यहु अर्थ-जो निवधिपणां होय सो श्री, अथवा श्रद्धान आदि गुणका उपजावना है लक्षण जाका ऐसी श्रीकरि युक्त होय सो श्रीमान् । बहुरि याकू समुद्र कह्या सो रूपकालंकार करि कह्या सो याका विशेषण किया जो अमेयप्रमेयरत्नसार है । सो अमेय कहिये मिथ्यादृष्टीनिकरि जाननेमैं न आवै अथवा गणनारहित अनंतानंत ऐसे जे प्रमेय कहिये प्रमाणकरि जिनिकू जानिये ऐसे जीव आदिपदार्थ वस्तु है । बहुरि रत्ननिबिर्फे सार होय सो रत्नसार कहिये, ऐसैं अमेय प्रमेय है रत्न सार जामैं ऐसे बहुव्रीहि समास है । बहुरि अमेय प्रमेय जे रत्न तिनिकरि सार है-उत्कृष्ट है ऐसा न्यायरूप समुद्र है ऐसे तत्पुरुष समास है। ऐसैं इस परीक्षामुख प्रकरणके संबंध, अभिधेय, शक्यानुष्ठानइष्टप्रयोजन इनि तीनूंनिकौं जानें विना परीक्षावान पुरुषनिकी प्रवृत्ति या विर्षे होय नाहीं, इस हेतु” तिनि तीनूंनिका अनुवाद कहिये पूर्वाचार्यनि करि कह्या होय तिस अनुसार कहना सो है पुरस्सर कहिये मुख्य जामैं । बहुरि वस्तु जाका कथन कीजिये सो ऐसा इहां वस्तुशब्दकरि प्रमाण अर प्रमाणाभास लेनां ताका निर्देश कहिये स्वरूप कहनां तिस विषै पर कहिये उत्कृष्ट–तत्पर ऐसा प्रतिज्ञाका श्लोक कहै है ।
भावार्थ-इस ग्रंथका आदिका श्लोक है तामैं अभिधेय संबंध शक्यानुष्ठानइष्टप्रयोजन इन तीनूंकौं जनाय अर प्रमाण अर प्रमाणाभासका लक्षण, जो पूर्वाचार्यनिकरि कया है तिनिका अनुसार ले कहनेकी प्रतिज्ञा करै है;