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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला !
ज्ञान सो प्रमाण” होय है, तहां मा कहिये लक्ष्मी अन्तरंग तो अनंतचतुष्टयरूप अरु बाह्य समवसरणादिकरूप; बहुरि आण कहिये शब्द इनि दोऊनिका द्वन्द्वसमासतें माण ऐसा भया, बहुरि उपसर्ग जोड्या तब प्रमाण भया सो इस उपसर्गके योग” ऐसा अर्थ भया जो ऐसी प्रकृष्ट उत्कृष्ट लक्ष्मी हरि-हर-ब्रह्मा आदिकू लौकिकदेव मानै है तिनिकै नांही । बहुरि ऐसी दिव्यध्वनि वाणी प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणते विरोधरहित अन्यकै नाही, ऐसा प्रमाणनाम भगवान अरहंतकाही भया ऐसैं असाधारण गुण दिखावनां-कहना है सो भगवानका स्तवनही है तातें अर्थकी संसिद्धिकू अवश्य कारणभूत जो प्रमाण कहिये भगवान अर्हन्त तारै तौ अर्थकी संसिद्धि सम्यग्ज्ञान होय है । बहुरि प्रमाणाभास जे हरिहरादिक तिनि” अर्थकी संसिद्धिका अभाव-मिथ्याज्ञान होय है । इस हेतु” इस प्रकरण तिनि प्रमाण प्रमाणाभासका लक्षण कहूंगा । ऐसैं कह्या तैसा आगैं सूत्र कहियेगा । जो “सामग्रीविशेष" इत्यादिक तिनिमैं सर्वज्ञ असर्वज्ञका निश्चय करियेगा। ऐसैं अरहंतका सत्यार्थस्वरूप कहनां सो मंगलरूप भया, अन्यका निषेध सो अमंगलका निषेध है ऐसा जाननां ।
आगैं अब कहनेंकू प्रारंभ किया जो प्रमाणतत्व ताविषै अन्यवादी. निकै च्यारि विप्रतिपत्ति हैं । स्वरूपविप्रतिपत्ति १ संख्या विप्रतिपत्ति २ विषयविप्रतिपत्ति ३ फलविप्रतिपत्ति ४ ऐसैं च्यारि । तिनिमैं प्रथमही स्वरूपकी विप्रतिपत्तिका निराकरणकै अर्थि सूत्र कहै है । इहां विप्रतिपत्ति नाम अन्यथा जाननेंका है सो प्रमाणका स्वरूप अन्यवादी अन्यप्रकार कहै है सो बाधासहित है, सत्यार्थ नाहीं, ऐसा इस सूत्रतें सिद्ध होय है;
स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ॥ १ ॥