Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४
११
यद्यपि ग्रहण, परिणमन और स्पन्दन रूप क्रियाओं का कारण वीर्य है | परन्तु कार्य के साथ कारण की अभेद विवक्षा करने से ग्रहण, परिणाम और स्पन्दन रूप क्रिया को भी वीर्य कहा जाता है और इस प्रकार के स्वरूप वाले सलेश्य वीर्य को योग भी कहते हैं । किन्तु अलेश्य वीर्य द्वारा पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन आदि नहीं होता है । क्योंकि अयोगिकेवली गुणस्थान वाले और सिद्ध पुद्गलों का ग्रहण करते ही नहीं हैं ।
सलेश्य जीव की वीर्यशक्ति को योग कहने का कारण यह है कि वह वीर्यं मन, वचन और काया के पुद्गलों के योग-संयोग से पुद्गलान्तरों को ग्रहण करने आदि रूप क्रियायें करने में प्रवृत्त होता है । इस प्रकार मन, वचन और काया रूप सहकारी कारण द्वारा उत्पन्न होने वाले उस योग के तीन प्रकार हो जाते हैं
१. मनोयोग २. वचनयोग और ३. काययोग |
इसका सारांश यह हुआ कि किसी भी वस्तु को ग्रहण करने आदि के लिए संसारी जीव के पास तीन साधन हैं- शरीर, वचन और मन । इन साधनों के माध्यम से उसका वस्तु ग्रहण आदि के लिए परिस्पन्दन होता है । इसलिए साधनों के नामानुरूपयोग के उक्त काययोग आदि तीन नाम हो जाते हैं ।
सहकारी कारण रूप मनोवर्गणा द्वारा प्रवर्तित होने वाला वीर्य मनोयोग, सहकारी कारण रूप भाषा वर्गणा द्वारा प्रवर्तित वीर्य वचनयोग और सहकारी कारण रूप काया के पुद्गलों द्वारा प्रवर्तित होने वाला वीर्य काययोग कहलाता है ।
इस प्रकार सामान्य से कर्मबंध की कारणभूत वीर्य शक्ति का विचार करने के पश्चात् अब योग संज्ञक वीर्य के समानार्थक नामों का निर्देश करते हैं ।
योगसंज्ञक वीर्य के समानार्थक नाम
जोगो विरियं थामोउच्छाहपरक्कमो तहा चेट्ठा । सत्ति सामत्थं चिय जोगस्स हवंति पज्जाया ॥४॥