Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २४
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जहाँ कहीं भी हानि में गुण शब्द का प्रयोग किया जाये वहाँ सर्वत्र गुण शब्द से भागाकार प्रमाण ही जानना चाहिये, गुणाकार रूप नहों और वृद्धि के प्रसंग में गुण शब्द का अर्थ गुणाकार समझना चाहिए।
इस प्रकार से स्नेहप्रत्ययिक वर्गणाओं का विस्तार से विवेचन करने के बाद अब स्नेहप्रत्ययस्पर्धक के स्वरूप का विचार करते हैं
एक स्नेहाविभाग से लेकर यथोत्तर के क्रम से वृद्धि को प्राप्त अनन्त स्नेहाविभागों से युक्त परमाणुओं की अनन्त वर्गणायें होती हैं और उन अनन्त वर्गणाओं के समुदाय का एक स्नेहप्रत्ययस्पर्धक होता है। इसके मध्य में एक-एक स्नेहाणु की वृद्धि का विच्छेद न होने से यह स्नेहप्रत्ययस्पर्धक एक ही होता है। क्योंकि अनुक्रम से अविभागी अंशों से बढ़ने वाली उक्त वर्गणाओं के अन्तराल में एक-एक अविभाग की वृद्धि का व्यवच्छेद नहीं है। अर्थात् एक-एक अविभागवृद्धि का व्यवच्छेद स्पर्धक के अन्त में होता है। कहा भी है
रूवुत्तर वुड्ढीए छेओ फड्डग्गणं अर्थात् रूपोत्तर वृद्धि का जो विच्छेद वह स्पर्धक का अंत कहलाता है किन्तु यहाँ जघन्य से लेकर उत्कृष्ट स्नेहाणु वाली अंतिम वर्गणा पर्यन्त एक-एक बढ़ते हुए स्नेहाणु वाली वर्गणायें प्राप्त होती हैं। बीच में एक-एक के क्रम से बढ़ते स्नेहाणु का विच्छेद नहीं होने से अनेक स्पर्धक नहीं होते हैं, लेकिन एक ही स्पर्धक होता है।
इस प्रकार से स्नेहप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये।
अब नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा को कहते हैं। उसके विचार के आठ अनुयोगद्वार इस प्रकार हैं--१. अविभाग प्ररूपणा, २. वर्गणा
१ एक (अंक) संख्या का बोधक रूप शब्द है ।