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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३२,३३,३४
अन्तिम असंख्यातगुणवृद्ध स्थान के बाद मूल से लेकर पहले असंख्यातगुणवृद्ध स्थान पर्यन्त जितने स्थान जिस क्रम से कहे हैं, उतने उसी प्रकार से कहना चाहिये । तत्पश्चात् पूर्व के अनन्तर स्थान की अपेक्षा अनन्त गुणाधिक स्पर्धक वाला पहला शरीरस्थान होता है। उसके बाद मूल से लेकर यहाँ तक जितने शरीरस्थान पूर्व में कहे गये हैं, उतने ही उसी क्रम से कहना चाहिये । उसके बाद दूसरा अनन्तगुणाधिक स्पर्धक वाला स्थान होता है। तत्पश्चात् पहले और दूसरे अनन्तगुणवृद्ध स्थान के बीच में जो स्थान जिस क्रम में कहे हैं, उसी प्रकार समस्त स्थानों को कहकर अनन्त गुणाधिक स्पर्धक वाला स्थान कहना चाहिये। इस प्रकार से अनन्तगुणाधिक शरीरस्थान का कंडक पूर्ण होता है। ____अन्तिम बार अनन्तगुणाधिक वाला स्थान कहने के बाद मूल से लेकर पहले अनन्तगुणवृद्ध स्थान पर्यन्त जो पंच वृद्ध यात्मक स्थान कहे हैं, उसी तरह सभी स्थान कहना चाहिये, परन्तु उसके बाद अनन्तगुणवृद्ध स्थान नहीं कहना चाहिये। इसका कारण यह है कि यहाँ पहला षट्स्थान समाप्त होता है, और अनन्तगुण वृद्धि के पश्चात् पुनः अनन्तगुण वृद्धि नहीं होती है।
इस प्रकार प्रथम षट्स्थान की प्ररूपणा जानना चाहिये।
तत्पश्चात् दूसरा षट्स्थान प्रारम्भ होता है, दूसरे षट्स्थान की आदि में एक कंडक प्रमाण अनन्तभागवृद्धि वाले स्थान होते हैं। उसके बाद अनन्तभागवृद्ध स्थान कंडक से व्यवहित असंख्यातभागवृद्ध स्थान कंडक जितने होते हैं । इस तरह पहला षट् स्थान जिस क्रम से कहा है, उसी प्रकार अनन्तभाग, असंख्यातभाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण, असंख्यातगुण और अनन्तगुण ये छहों वृद्धियाँ होती हैं
और तब दूसरा षट्स्थानक पूर्ण होने के पश्चात् पूर्वोक्त क्रम से तीसरा षट्स्थानक पूर्ण हो जाता है। १. असत्कल्पना से षट्स्थान प्ररूपणा का आशय 'कर्मप्रकृति' के परिशिष्ट में
देखिये।