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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२, ६३, ६४
ऊपर की ओर, अनंतगुणणाए सेढीए - अनन्तगुण श्रेणि से ।
तत्तो— उससे, पढमठिईए- - प्रथम स्थितिस्थान से, उक्कोसं - उत्कृष्ट, ठाणi - स्थान, अनंतगुणं - अनन्तगुण, तत्तो – उससे, कंडग - उवरि - कंडक से ऊपर, आ-उक्कस्सं—उत्कृष्ट स्थितिस्थान पर्यन्त, नए - जानना चाहिये, एवं - इसी प्रकार |
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उक्कोसाणं - उत्कृष्ट स्थितिस्थानों का, कंडे - कंडक प्रमाण, अनंतगुणणाए – अनन्तगुण रूप से, तन्नए — वह जानना चाहिये, पच्छा— उत्तरोत्तर, उवघायमाइयाणं - उपघात आदि की, इयराणुक्कोसगाहिंतो — इतर पराघातादि की उत्कृष्ट स्थितिस्थान से ।
गाथार्थ - जघन्य स्थिति के प्रथम अनुभागस्थान से लेकर निर्वर्तन कंडक पर्यन्त ऊपर-ऊपर के स्थान में जघन्य रस अनन्तगुण से जाता है ।
उससे प्रथम स्थितिस्थान में उत्कृष्ट रसस्थान अनन्तगुण होता है, उससे निर्वर्तन कंडक के ऊपर के स्थितिस्थान में जघन्य रसबंध अनन्तगुण होता है, इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिस्थान पर्यन्त जानना चाहिये ।
अंतिम कंडक प्रमाण स्थानों का उत्कृष्ट रस अनुक्त है, उनमें उत्तरोत्तर अनन्तगुण रस अंतिम उत्कृष्ट स्थितिस्थान पर्यन्त जानना चाहिये । उपघातादि में उपर्युक्त प्रमाण और इतर पराघातादि में उत्कृष्ट स्थितिस्थान से प्रारंभ करके ( अधोमुख) ऊपर कहे गये अनुसार कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ - उक्त गाथा त्रय में अपरावर्तमान अशुभ और शुभ वर्ग की प्रकृतियों की तीव्रमदंता जानने का विधिसूत्र कहा है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
उपघातनाम आदि पचपन अशुभ प्रकृतियों में जघन्य स्थितिस्थान बांधने पर जो जघन्य रसस्थान बंधता है, उससे अनन्तगुणअनन्तगुण जघन्य रस अनुक्रम से ऊपर-ऊपर के स्थितिस्थान बांधते