Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 334
________________ दलिक विभागाल्पबहुत्व विषयक स्पष्टीकरण : परिशिष्ट ८ ४ जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अथवा जघन्य प्रदेशबंध जिस योगस्थान से होता हो, उसकी अपेक्षा दूसरी जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अथवा जघन्य प्रदेशबंध असंख्यातगुण अधिक योगस्थान से होता हो तो उसके भाग में for असंख्यात गुण आते हैं। जैसे कि मनुष्यगति का जघन्य प्रदेशबंध सबसे अल्प वीर्य वाले लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया को उत्पत्ति के प्रथम समय में उनतीस प्रकृतियों के बंधस्थान में प्राप्त होता है तथा देवगति का जघन्य प्रदेशबंध सम्यग्दृष्टि मनुष्य को उत्पत्ति के प्रथम समय में तीर्थंकर नाम सहित देवगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधस्थान में प्राप्त होता है । यहाँ मनुष्य के लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया के उत्पत्ति के प्रथम समय की अपेक्षा असंख्यातगुण वृद्धि वाला योगस्थान होता है, जिससे मनुष्यगति के जघन्य पद में प्राप्त हुए दलिक की अपेक्षा जघन्य पद में देव गति के प्राप्त हुए कर्म दलिक असंख्यातगुण होते हैं । २८७ - ५ जिस समय चौदह मुख्य पिंडप्रकृतियों में से जितनी प्रकृतियाँ बंधती हों उतने ही भाग होते हैं, परन्तु शरीर आदि के अवान्तर भेद अधिक बंध हों तो भी चौदह में से उनका अलग भाग नहीं होता है, परन्तु शरीर को प्राप्त दलिक में से ही जिस समय जितने शरीर बंधते हों उतने अवान्तर विभाग होते हैं । उदाहरणार्थ – देवगतिप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृति बंधे तब उनमें संहनन नाम के बिना मुख्य तेरह पिंड प्रकृतियाँ बंधती हैं, जिससे उसके तेरह, अगरुलघु चतुष्क, उपघात, त्रसचतुष्क और यथासंभव स्थिर अथवा अस्थिर षट्क इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृति बांधे तब उसके अट्ठाईस भाग हों, उस समय शरीर और संघात को प्राप्त दलिक के तीन, बंधन को प्राप्त दलिक के छह और वर्णादि चतुष्क को प्राप्त दलिक के अनुक्रम से ५, २, ५ और ८ भाग होते हैं । यद्यपि इस अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में संघातन और बंधन को गिना नहीं है और उसके बदले तैजस-कार्मण शरीर को ही गिना है, परन्तु तेजस आदि दो शरीर को तो शरीर नाम कर्म को प्राप्त हुए दलिक में से भाग मिलता है एवं संघातन और बंधन सर्वत्र बंध और उदय में शरीर के

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