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असत्कल्पना द्वारा अनुकृष्टि प्ररूपणा का स्पष्टीकरण : परिशिष्ट ११ २६७
____सातावेदनीय आदि सोलह परावर्तमान शुभ प्रकृतियों और असातावेदनीय आदि अट्ठाईस परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि का विचार करने के पूर्व निम्नलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए
शुभ और अशुभ प्रतिपक्ष प्रकृतियों के जितने स्थितिस्थान प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में परावर्तन रूप से बधते हैं, उतने स्थिति-स्थानों को आक्रांत स्थितिस्थान कहा जाता है।
जैसे अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध से प्रतिपक्ष दोनों प्रकृतियों में से जिस प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध कम हो वहाँ तक के सभी स्थितिस्थान आक्रांत कहलाते हैं, जिससे अभव्यप्रायोग्य साता-असाता वेदनीय के जघन्य स्थितिबंध से साता के पन्द्रह कोडा-कोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंध तक के सभी स्थितिस्थान दोनों प्रकृतियों के आक्रान्त कहलाते हैं और उनमें की जिस प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति अधिक हो, वे स्थितिस्थान शुद्ध कहलाते हैं । अर्थात् दोनों प्रकृतियाँ बंधे, वैसे मध्यम परिणाम नहीं होते हैं, परन्तु अधिक खराब परिणाम हों तभी जो स्थिति बंधती हैं, जैसे कि पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थितिबंध से अधिक स्थितिबंधयोग्य संकिलष्ट परिणाम हों तब समयाधिक पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम से तीस कोडाकोडी सागरोपम तक की असातावेदनीय की स्थिति बंधती है, जिससे वे सभी स्थितिस्थान शुद्ध कहलाते हैं । ___ इसी प्रकार प्रतिपक्ष दो प्रकृतियों में से जिस प्रकृति का अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध से भी अधिक न्यून जघन्य स्थितिबंध होता है उन प्रकृतियों का उसकी प्रतिपक्ष प्रकृति का अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध से अपने जघन्य स्थितिबंध तक के नीचे के स्थितिस्थान शुद्ध होते हैं और इसी कारण असातावेदनीय के अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध से नीचे सातावेदनीय के जघन्य स्थितिबंध तक के सातावेदनीय के शुद्ध स्थितिस्थान होते हैं । अर्थात् अधिक विशुद्धि वाले परिणाम हों तब अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध से भी हीन सातावेदनीय का जघन्य स्थितिबंध होता है, जिससे सातावेदनीय के वे स्थिति-स्थान शुद्ध कहलाते हैं ।