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पंचसंग्रह : ६
कोडी) से नीचे के स्थितिस्थान अनुकृष्टि के अयोग्य हैं । अतः उनसे आगे ६ के अंक से आरम्भ करके २० तक के १२ स्थितिस्थानों में अनुकृष्टि का विचार किया गया है । ये प्रत्येक अंक एक-एक स्थितिस्थान का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
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३ नौ के अंक से जो अनुकृष्टि प्रारम्भ हुई है उसमें अंक के सामने रखे गये ० (शून्य) तथा 4 (त्रिकोण) को अनुभागबंधाध्यवसायस्थान रूप जानना चाहिये । लेकिन इतना विशेष है कि ० (शून्य) से मूल अनुभागबंधाध्यवसायस्थान और 4 (त्रिकोण) से मूलोपरान्त का नवीन स्थान समझना चाहिये ।
४ जघन्य स्थितिबंधवृद्धि का प्रमाण पल्य का असंख्यातवां भाग है । जिसे यहाँ ६ से १२ तक के चार अंकों द्वारा दिखाया गया है ।
५ नौ के अंक से जो अनुकृष्टि प्रारम्भ हुई है, उसमें वहाँ जितने अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका 'तदेकदेश' एवं अन्य इतने अनुस्थान दसवें स्थान में होते हैं । ' तदेकदेश एवं अन्य अर्थात् पूर्व स्थान के अध्यवसायों के असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष सर्व और दूसरे भी । नौवें स्थितिस्थान में जो स्थान होते हैं, उनमें के दसवें स्थितिस्थान में तदेकदेशरूप शून्य के द्वारा बताये गये स्थान हैं । उन्हें बताने के लिए शून्यों में से आदि के यथायोग्य शून्य खाली छोड़कर शेष शून्यों के नीचे पुनः शून्य दिये गये हैं । अर्थात् पूर्व स्थिति-स्थान में के अनु-स्थानों की पीछे के स्थितिस्थानों अनुकृष्टि जानना तथा 4 (त्रिकोण) द्वारा 'अन्य' दूसरे नवीन अनु- स्थान जानना चाहिये ।
६ बारहवें स्थितिस्थान में नौवें स्थितिस्थान से प्रारम्भ हुई अनुकृष्टि समाप्त होती है । वहाँ तक नौवें स्थान के अनु-स्थान होते हैं । किन्तु इससे आगे तेरहवें आदि स्थानों में उनका एक भी अनु-स्थान नहीं होता है । इसी तरह आगे के स्थानों के लिये समझना चाहिये । अर्थात् इसके बाद के दस आदि स्थितिस्थान सम्बन्धी अनु- स्थानों की अनुकृष्टि प्रारम्भ होती है, जो