Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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परिशिष्ट ८
दलिक-विभागाल्पबहुत्व विषयक स्पष्टीकरण
गाथा ४१ के विवेचन में उत्कृष्ट एवं जघन्य पद में उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा दलिकों का विभाग तो बतलाया है; परन्तु विभाग करने का कारण और उस प्रकृति को उतना दलिक मिलने में क्या हेतु है, उसका स्पष्टीकरण नहीं किया जा सका है। उस कमी की पूर्ति के लिए कारण सहित व्याख्या यहाँ करते हैं, जिससे पाठकों को समझने में सुगमता हो। - इस अल्पबहुत्व को समझने के लिए निम्नलिखित नियम विशेष रूप से ज्ञातव्य हैं
१ मूल कर्मों को प्राप्त हुए दलिक का अनन्तवां भाग ही सर्वघाति प्रकृतियों को मिलता है एवं शेष रहा उस कर्म का अनन्त गुण दलिक उस समय उस कर्म की बध्यमान देशघाति प्रकृति को मिलता है। जिससे किसी भी मूल कर्म की अन्तर्वर्ती सर्वघाति प्रकृतियों के भाग में आये दलिक से देशघाति प्रकृति का दलिक सर्वत्र अनन्तगुण होता है।
उदाहरणार्थ-ज्ञानावरण कर्म के हिस्से में आये दलिक का अनन्तवां भाग केवलज्ञानावरण को मिलता है और शेष रहा अनन्तगुण दलिक मनपर्याय ज्ञानावरण आदि शेष चार देशघाति प्रकृतियों को मिलता है । जिससे केवलज्ञानावरण को प्राप्त हुए दलिक से मनपर्याय ज्ञानावरण को प्राप्त हुआ दलिक अनन्तगुण होता है ।
२ किसी भी विवक्षित एक ही बन्धस्थान में जो और जितनी प्रकृतियां साथ में बंधती हों एवं योगस्थान भी वही होने पर जिस प्रकृति को प्राप्त