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पंचसंग्रह : ६
भाग दलिक अधिक बताये हों तो वहाँ मात्र असंख्यातभाग अधिक ही समझना चाहिए और उसके लिए उस-उस प्रकृति का स्वभाव ही कारण है।
जिसको उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझा जा सकता है-मनपर्याय ज्ञानावरण आदि चारों क्षायोपशमिक ज्ञानावरणों का दसवें गुणस्थान में तत्योग उत्कृष्ट योगस्थान से उत्कृष्ट देशबंध होता है, लेकिन मनपर्याय ज्ञानावरण को प्राप्त हुए दलिक से अवधिज्ञानावरण का दलिक असंख्यातभाग रूप विशेषाधिक होता है और ऐसा होने में उस प्रकृति का स्वभाव ही कारण है । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए।
३ अधिक प्रकृतियों के बंध वाले बंधस्थान में जो प्रकृतियाँ बंधती हों, उनकी अपेक्षा उनसे कम संख्या वाले प्रकृति के बंधस्थान में जो प्रकृति बंधती हों उसके भाग में जो विशेषाधिक दलिक प्राप्त होते हैं वे प्रायः सभी संख्यात भाग अधिक होते हैं ।
जैसे कि द्वीन्द्रियादि जातिचतुष्क का उत्कृष्ट प्रदेशबंध द्वीन्द्रियादि प्रायोग्य पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में और जघन्य प्रदेशबंध द्वीन्द्रियादि प्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान में होता है और एकेन्द्रिय जाति का उत्कृष्ट प्रदेशबंध एकेन्द्रिय प्रायोग्य तेईस प्रकृतियों के बंधस्थान में एवं जघन्य प्रदेशबंध छब्बीस प्रकृतियों के बंधस्थान में होता है। जिससे द्वीन्द्रियादि चारों जातियों के उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध में जितने दलिक आते हैं, उनसे एकेन्द्रियजाति में दोनों प्रकार के बन्धस्थान में दलिक संख्यातभाग अधिक आते हैं।
कहीं पर संख्यातगुण अधिक भी होते हैं। उदाहरणार्थ कि मूल प्रकृतियों के सप्तविध बंधक को अयशकीर्ति का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नामकर्म के तेईस प्रकृतिक बंधस्थान में होता है और यशःकीर्ति का उत्कृष्ट प्रदेश बंध दसवें गुणस्थान में छह मूल प्रकृतियों के बंधक को नामकर्म की मात्र यशःकीर्ति का बंध होता है जिससे अयशःकीर्ति को उत्कृष्ट पद में प्राप्त हुए दलिक की अपेक्षा यशःकीर्ति को उत्कृष्ट पद में प्राप्त हुआ दलिक संख्यातगुण होता है।