Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६
इस प्रकार अनुभागबंध की सविस्तार प्ररूपणा समाप्त हुई । अब प्रसंग प्राप्त स्थितिबंध का वर्णन करते हैं ।
स्थितिबंध प्ररूपणा-
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स्थितिबंध प्ररूपणा के चार अधिकार हैं - १. स्थितिस्थान प्ररूपणा, २. निषेक प्ररूपणा, ३. अबाधा कंडक प्ररूपणा और ४. अल्प बहुत्व प्ररूपणा । इन चारों में से एक समय में एक साथ जितनी स्थिति बंधे, उसे स्थितिस्थान कहते हैं। कुल कितने स्थितिस्थान होते हैं और एकेन्द्रियादि को कितने-कितने स्थितिस्थान होते हैं वह पहले बंधविधि नामक पांचवें अध्ययन की गाथा ५६ 'ठिइठाणाई एगेंदियाण थोवाई होंति सव्वाणं' में कहा जा चुका है। अतः यहाँ किस जीव को किससे अल्पाधिक स्थितिबंध होता है, उसका अल्पबहुत्व कहते हैं ।
स्थितिबंध का अल्पबहुत्व
संजय बादरसुहुमग पज्जअपज्जाण हीणमुक्कोसो । एवं विगलासन्निस संजय उक्कोसगो बंधो ॥६॥ देस दुग विरय चउरो सन्निपञ्चिन्दियस्स चउरो य । संखेज्जगुणा कमसो सञ्जय उक्कोजगाहितो ॥१००॥
शब्दार्थ - संजय - संयत, बादरसुहुमग— बादर, सूक्ष्म, पज्जअपज्जाणपर्याप्त, अपर्याप्त होणमुक्कोसो— जघन्य और उत्कृष्ट, एवं - इसी प्रकार, विगलासन्निसु - विकलेन्द्रिय और असंज्ञी का, संजय - संयत, उक्कोसगोउत्कृष्ट, बंधो— स्थितिबंध |
देस - देसविरत, दुग - द्विक, अविरय — अविरत, चउरो-चार का, सन्निपञ्चदियस्स – संज्ञी पंचेन्द्रिय का, चउरो – चार, य-और, संखेज्जगुणा - संख्यात गुण, कमसो - अनुक्रम से, सञ्जय - संयत, उक्कोजगाहिंतोउत्कृष्ट से।
गाथार्थ - ( सूक्ष्म संप राय ) संयत का स्थितिबंध सबसे अल्प है, उससे बादर सूक्ष्म के पर्याप्त अपर्याप्त का जघन्य, उत्कृष्ट स्थितिबंध, इसी प्रकार विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय का भी जानना