Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२६०
पंचसंग्रह : ६ यह है कि जघन्य योग के अनन्तर जैसे-जैसे वीर्य वृद्धि होती है, वैसे-वैसे चार, पांच, छह, सात और आठ समय की तथा उसके बाद अवरोह क्रम से सात, छह, पांच, चार, तीन, दो समय तक की स्थिति होती है। इस कारण जैसे यव (जो) का मध्य भाग मोटा होता है, वैसे ही योगरूप इस यव का मध्य विभाग आठ समय जितनी अधिक स्थिति वाला है और यव की दोनों बाजुएँ जैसे हीन-हीन होती हैं वैसे ही योगरूप यव के अष्ट समयात्मक मध्य विभाग से सप्त सामयिक आदि उभयपार्श्ववर्ती विभाग हीन-हीन स्थिति वाले हैं।
इस प्रकार से समयाधिक्य की अपेक्षा योगस्थानों को यवरूप स्थिति में जानना चाहिये।
. Malheart
.. hen Incre
.. LuneRANS/.... . .
IIRLY PRERE
. . . 'सप्त सामयिक विभाग असरव्यगुण असंख्यगुण
... "षट् असंरव्यगुण
पञ्च ॥ असंख्य गुण
चतुः ।
असंख्य गुण
असरव्य गुण
द्वि
१
लेकिन निरन्तर प्रवर्तने की अपेक्षा इन योगस्थानों की हीनाधिकता डमरूक के आकार जैसी होती है। अर्थात् जैसे डमरूक का मध्य भाग सकड़ा होता है, उसी प्रकार इस योगरूप डमरूक के मध्य भाग रूप अष्ट सामयिक योगस्थान अल्प (श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण) हैं और डमरूक के पूर्वोत्तर दोनों भाग क्रमशः चौड़े होते जाते हैं, उसी प्रकार इस