Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 325
________________ २७८ पंचसंग्रह : ६ वर्णन किया गया है। लेकिन दोनों के वर्णन में आपेक्षिक समानता भी है और असमानता भी है । जिसका संक्षेप में सारांश इस प्रकार है कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह में परमाणुवर्गणा के अर्थ में सब परमाणुओं के लिए पृथक्-पृथक् वर्गणा शब्द का प्रयोग किया है। इसी प्रकार द्विपरमाणु आदि सभी वर्गणाएँ कही हैं। जिससे यह तात्पर्य निकलता है कि परमाणु वर्गणा अनन्त हैं, द्विपरमाणु वर्गणाएँ अनन्त हैं। परन्तु देवेन्द्र सूरि ने अपने कर्मग्रन्थों में सर्व परमाणुओं के संग्रह अर्थ में परमाणुवर्गणा का प्रयोग किया है। इसी प्रकार द्विपरमाणु स्कन्धों के संग्रह के लिए द्विपरमाणुवर्गणा कहा है। विशेषावश्यकभाष्य में वर्गणाओं के विचार का प्रारम्भ तो कर्मग्रन्थों के अनुरूप है । लेकिन भिन्नता इस प्रकार है-परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक की अनन्त वर्गणाएँ औदारिक शरीर के अग्रहणप्रायोग्य हैं, तदनन्तर एक-एक परमाणु अधिक स्कन्ध वाली अनन्त वर्गणाएँ औदारिक शरीर के ग्रहणप्रायोग्य हैं । तदनन्तर एक-एक परमाणु अधिक स्कन्ध वाली अनन्त वर्गणाएँ पुनः औदारिक शरीर के अग्रहणप्रायोग्य हैं । तत्पश्चात् एकएक परमाणु अधिक स्कन्ध वाली अनन्त वर्गणाएं वैक्रियशरीर के अग्रहणयोग्य हैं। उसके बाद एक-एक परमाणु अधिक स्कन्ध वाली अनन्त वर्गणाएँ वैक्रिय शरीर के ग्रहणयोग्य हैं। तदनन्तर एक-एक परमाणु अधिक स्कन्ध रूप अनन्त वर्गणाएँ पुनः वैक्रिय शरीर के अग्रहणप्रायोग्य हैं। इस प्रकार जीव को ग्रहणप्रायोग्य आठ वर्गणाओं को तीन-तीन रूप से कहने पर चौबीस वर्गणाएँ हो जाती हैं। यह चौबीस नाम दो ग्रहण वर्गणाओं के मध्य में दो अग्रहण वर्गणाएँ मानने से होते हैं। एक ही अग्रहण वर्गणा का जो आधा भाग जिस शरीर आदि के समीप आया है, उस शरीर आदि के नाम की विवक्षा से एक ही अग्रहण वर्गणा का दो-दो नाम से उल्लेख किया है। लेकिन पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति आदि कर्म ग्रन्थों में इस प्रकार का पार्थक्य न करके ग्रहणयोग्य वर्गणा के बाद अग्रहण वर्गणा कहकर अग्रहण और ग्रहण की अपेक्षा सोलह प्रकार माने हैं। .... इसके अतिरिक्त भाष्य वर्णन में निम्नलिखित अन्तर और हैं

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