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परिशिष्ट ६.
वर्गणाओं सम्बन्धी वर्णन का सारांश
यह लोक पुद्गल परमाणुओं से व्याप्त है । कर्म पौद्गलिक हैं और पुद्गल एक द्रव्य है । इसलिए जैन कर्म सिद्धान्त आदि में यथायोग्य रीति से पुद्गल द्रव्य का वर्णन किया गया है ।
कर्म साहित्य में पुद्गल द्रव्य का वर्गणामुखेन वर्णन किया गया है। पुद्गल परमाणु अपने-अपने समगुण और समसंख्या वाले समूहों में वर्गीकृत हैं और इनके संयोग से संसारी जीव के शरीर, इन्द्रियों आदि की रचना होती है । इनके लिए वर्गणा शब्द का प्रयोग किया जाता है ।
कर्म सिद्धान्त में इन वर्गणाओं के दो प्रकार माने हैं - ( १ ) ग्रहणयोग्य, ( २ ) अग्रहणयोग्य | यह भिन्नता तत्तत् शरीरस्थ जीव द्वारा उन-उन पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करने अथवा न करने की योग्यता अथवा पुद्गल परमाणुओं में तथा स्वभाव से ग्रहण होने या न होने की योग्यता पर आधारित है । इस अपेक्षा से कर्म - सिद्धान्त में इन सब ग्रहण और अग्रहण वर्गणाओं को निम्नलिखित २६ भेदों में विभाजित किया गया है
१. अग्रहण, २. औदारिक, ३. अग्रहण, ४. वैक्रिय, ५ अग्रहण, ६. आहारक, ७. अग्रहण, ८. तेजस्, ६. अग्रहण, १०. भाषा, ११ अग्रहण, १२. श्वासोच्छ्वास, १३. अग्रहण, १४. मन, १५ अग्रहण, १६. कार्मण,
( सान्तर - निरंतर),
१६. ध्रु वशून्य,
१७. ध्रुवाचित्त, १८. अध्रुवाचित्त २०. प्रत्येक शरीरी, २१. ध्रुवशून्य, २२. बादरनिगोद, २३. ध्रुवशून्य, २४ सूक्ष्मनिगोद, २५. ध्रुवशून्य, २६. महास्कन्ध ।
कर्म प्रकृति, पंचसंग्रह और विशेषावश्यकभाष्य में इन वर्गणाओं का