Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६ अब अनुकृष्टि कहते हैं । किन्तु स्थितिबंध में हेतुभूत अध्यवसायों की अनुकृष्टि नहीं होती है। क्योंकि प्रत्येक स्थितिस्थान में उसके बंध में हेतुभूत नवीन ही अध्यवसाय होते हैं । जैसे कि ज्ञानावरण की जघन्य स्थिति बांधने के जो अध्यवसाय है, उनमें का एक भी अध्यवसाय समयाधिक जघन्य स्थिति बांधने पर नहीं होता है। किन्तु सभी नवीन ही, दूसरे ही होते हैं । दो समयाधिक जघन्य स्थिति बांधने पर भी अन्य ही होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त कहना चाहिये । इसी प्रकार सभी कर्मों के संबंध में जानना चाहिये। ___ अब तीव्रमंदता के कथन करने का अवसर है । परन्तु उसे आगे कहेंगे।
इस प्रकार स्थितिसमुदाहार-स्थितिस्थानों में अध्यवसायों का प्रतिपादन किया । अब प्रकृतिसमुदाहार का कथन करते हैं। __ प्रकृतिसमुदाहार–प्रत्येक कर्म के बंध में हेतुभूत कितने अध्यवसाय हैं ? इस कथन को प्रकृति समुदाहार कहते हैं । उसके विचार के दो द्वार हैं-१. प्रमाणानुगम-संख्या का विचार और २. अल्पबहुत्व । इनमें से पहले प्रमाणानुगम का विचार करते हैं कि ज्ञानावरण आदि सभी कर्मों के समस्त स्थितिस्थानकों के अध्यवसायों की कुल संख्या असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है। . अब अल्पबहुत्व का कथन करते हैं
ठिइदीहाए कमसो असंखगुणणाए होंति पगईणं ।
अज्झवसाया आउगनामट्ठमदुविहमोहाणं ॥१०७॥ शब्दार्थ-ठिइदीहाए-स्थिति की दीर्घता के अनुसार, कमसो-क्रमशः, असंखगुणणाए-असंख्यात गुणे, होति होते हैं, पगईणं-प्रकृतियों के, अज्झवसाया-अध्यवसाय, आउगनामट्ठम-आयु, नाम और आठवें अंतराय, दुविह मोहाण-दोनों प्रकार मोहनीय के।
गाथार्थ-कर्म प्रकृतियों की दोघं स्थिति के अनुसार असंख्यात