Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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वीर्य शक्ति का स्पष्टीकरण : परिशिष्ट ३
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___सलेश्य जीवों में कार्यभेद एवं स्वामिभेद की अपेक्षा वीर्य के दो प्रकार हो जाते हैं। कार्यभेद की अपेक्षा वाला वीर्यप्रकार एक जीव को एक समय में अनेक प्रकार का होता है तथा स्वामिभेद की अपेक्षा वाला प्रकार एक जीव को एक समय में एक प्रकार का और अनेक जीवों की अपेक्षा अनेक प्रकार का है।
सलेश्य जीवों के दो भेद हैं-छद्मस्थ और केवली । अतः वीर्य उत्पत्ति के भी दो रूप हैं-वीर्यान्तरायकर्म के देशक्षयरूप और सर्वक्षयरूप । देशक्षय से प्रगट होने वाले वीर्य को क्षायोपशमिक और सर्वक्षयजन्य वीर्य को क्षायिक कहते हैं । देशक्षय से छदमस्थों में और सर्वक्षय से केवलियों में वीर्य प्रगट होता है । जिससे सलेश्य वीर्य के दो भेद हैं-छाद्मस्थिक सलेश्य वीर्य और कैवलिक सलेश्य वीर्य । ___ केवली जीव अकषायी होते हैं। अतएव उनका अवान्तर कोई भेद नहीं होता है। उनमें कषायरहित मन-वचन-काय परिस्पन्दन रूप वीर्य शक्ति होती है।
छाद्मस्थिक जीव दो प्रकार के हैं-अकषायी सलेश्य और सकषायी सलेश्य । कषायों का दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में विच्छेद हो जाने से छाद्मस्थिक अकषायी सलेश्य वीर्य ग्यारहवें और बारहवें (उपशांतमोंह, क्षीणमोह) गुणस्थानवर्ती जीवों में और छाद्मस्थिक सकषायी सलेश्य वीर्य दसवें गुणस्थान तक के जीवों में पाया जाता है ।
सलेश्य जीवों की प्रवृत्ति दो रूपों में होती है—एक तो दौड़ना, चलना, खाना आदि निश्चित कार्य करने रूप प्रयत्नपूर्वक और दूसरी बिना प्रयत्न के स्वयमेव होती रहती है। प्रयत्नपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति को अभिसधिज और बिना प्रयत्न के स्वयमेव सहज रूप में होने वाली प्रवृत्ति को अनभिसंधिज कहते हैं।
वीर्य शक्ति के उक्त स्पष्टीकरण एवं भेदों को सरलता से इस प्रकार जाना जा सकता है