Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६
बांधते हुए परावर्तमान शुभ प्रकृतियों का अथवा अशुभ प्रकृतियों का त्रिस्थानक रसबंध करता है । यहां दोनों का समान रसबंध होता है, यह नहीं समझना चाहिये, परन्तु जब अप्रत्याख्यानावरणकषाय मंद हो तब पुण्य का तीव्र त्रिस्थानक और पाप का मंद त्रिस्थानक रसबंध होता है और जैसे-जैसे वह कषाय तीव्र होती जाती है, वैसे-वैसे पुण्य IT मंद-मंद त्रिस्थानक और पाप का तीव्र तीव्र त्रिस्थानक रसबंध होता जाता है । त्रिस्थानक रसबंध के असंख्य प्रकार होने से यह घटित हो सकता है । ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बांधते हुए परावर्तमान पुण्य प्रकृतियों का द्विस्थानक रसबंध और अशुभ प्रकृतियों का चतुःस्थानक रसबंध करता है । यहाँ भी जैसे-जैसे कषाय का बल बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे स्थितिबंध अधिक, पुण्य का रस मंद और पाप का तीव्र रसबंध होता है । इसी कारण पुण्य प्रकृतियों का चतुः स्थानकादि त्रिविध रसबंध और पाप प्रकृतियों का द्विस्थानकादि त्रिविध रसबंध कहा है ।
इसका कारण यह है कि जब पुण्यप्रकृतियों का चतुःस्थानक सबंध होता हो तब परिणाम अतिशय निर्मल होते हैं, उस समय स्थितिबंध जघन्य होता है और पाप प्रकृतियों का एकस्थानक या द्विस्थानक रसबंध होता है । जब पुण्य प्रकृतियों का त्रिस्थानक रसबंध होता है, तब शुभ परिणामों की मंदता के कारण स्थितिबंध अजघन्य - मध्यम होता है और पाप प्रकृतियों का त्रिस्थानक रसबंध होता है और जब पुण्य प्रकृतियों का द्विस्थानक रसबंध होता है, तब परिणाम की क्लिष्टता होने से स्थितिबंध उत्कृष्ट होता है तथा पाप प्रकृतियों का चतुःस्थान रसबंध होता है ।
स्थितिबंध और रसबंध का आधार कषाय है । जैसे-जैसे कषाय तीव्र वैसे-वैसे स्थितिबंध अधिक, पुण्य में रस मंद और पाप में तीव्र रसबंध होता है । इस नियम के अनुसार जब अनन्तानुबंधी कषाय तीव्र रूप में हो तब स्थितिबंध उत्कृष्ट, पाप प्रकृतियों में रस तीव्र चतुः स्थानक और पुण्य में रस मंद तथास्वभाव से द्विस्थानक होता है ।