Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६ __ यहां स्थितिबंध के अध्यवसायों की अनुकृष्टि नहीं होती है । क्योंकि पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में नवीन ही कषायोदयजन्य अध्यवसाय होते हैं । इसी से एक ही स्थितिबंध में भी जघन्य से उत्कृष्ट स्थितिबंधाध्यवसायस्थान अनन्तगुण सामर्थ्य वाला कहा जाता है।
इस प्रकार स्थितिसमुदाहार का वर्णन समाप्त हुआ और उसके साथ ही प्रकृतिसमुदाहार का कथन भी किया गया जानना चाहिये ।
अब जीवसमुदाहार का वर्णन करते हैं। जीवसमुदाहार
धुवपगई बंधता चउठाणाई सुभाण इयराणं।
दो ठाणगाइ तिविहं सट्ठाणजहन्नगाईसु ॥१०॥ शब्दार्थ-धुवपगई-ध्र वबंधिनी प्रकृतियां, बंधता-बांधते हुए, चउठाणाई–चतुःस्थानकादि, सुभाण-शुभ, इयराणं--इतर (अशुभ), दो ठाणगाइ -द्विस्थानकादि, तिविहं-तीन प्रकार का, सट्ठाण-स्वयोग्य, जहन्नगाईसुजघन्यादि स्थिति में।
गाथार्थ-ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां बांधते हुए शुभ प्रकृतियों का चतु:स्थानकादि तीन प्रकार का और अशुभ प्रकृतियों का द्विस्थानकादि तीन प्रकार का रस बांधता है। इस प्रकार रस का बंध स्वयोग्य जघन्यादि स्थिति बांधने पर होता है। विशेषार्थ-ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, मिथ्यात्वमोहनीय, सोलह कषाय, भय जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और अंतरायपंचक रूप सैंतालीस ध्र वबंधिनी प्रकृतियों को बांधते हुए परावर्तमान सातावेदनीय, देवद्विक, मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक औदारिकद्विकआहारकद्विक, समचतुरस्र संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, पराघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, त्रसदशक, प्रशस्तविहायोगति, तीर्थकरनाम, नरकायु के बिना शेष तीन आयु और उच्चगोत्र रूप