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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६
२३३ चौंतीस पुण्यप्रकृतियों का चतु:स्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक रसबंध करता है।
उन्हीं पूर्वोक्त ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों को बांधते हुए यदि परावर्तमान असातावेदनीय, वेदत्रिक, हास्य, रति, शोक, अरति, नरकत्रिक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रियजाति बिना शेष चार जाति, प्रथम संहनन और संस्थान के बिना शेष पांच संस्थान और संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावरदशक और नीचगोत्र रूप उनचालीस पाप प्रकृतियों को बांधे तो उनका द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक रसबंध करता है।
इस प्रकार ध्र वबंधिनी प्रकृतियों को बांधते हुए परावर्तमान पुण्य और पाप प्रकृतियों का जो रसबंध कहा है, वह स्वयोग्य जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति बांधते हुए होता है, यह समझना चाहिये।
उक्त संक्षिप्त कथन का विशेष विचार इस प्रकार है-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बाँधते हुए जो परावर्तमान शुभ प्रकृतियाँ बंधती हैं उनका चतुःस्थानक रसबंध करता है और जो परावर्तमान अशुभ प्रकृतियां बंधती हैं उनका द्विस्थानक रसबंध करता है । क्योंकि तीन आयु के बिना किन्हीं भी प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध प्रशस्त परिणामों से होता है और प्रशस्त परिणाम होने से पुण्य प्रकृतियों का चतुःस्थानक और पाप प्रकृतियों का द्विस्थानक रसबंध होता है। __जैसे-जैसे परिणामों की मलिनता होती जाती है वैसे-वैसे स्थितिबंध अधिकाधिक होता जाता है, तब पुण्य प्रकृतियों में रसबंध मंदमंद और पाप प्रकृतियों में रसबंध अधिक-अधिक होता जाता है । जब उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है तब पाप प्रकृतियों का चतुःस्थानक रसबंध और पुण्य प्रकृतियों का तथास्वभाव से द्विस्थानक रसबंध होता है। इस प्रकार स्थितिबंध जैसे-जैसे कम होता है वैसे-वैसे पुण्य प्रकृतियों के रस की वृद्धि और पाप प्रकृतियों के रस की हानि होती जाती है।
इस क्रम से स्थितिबंध के अनुसार रसबंध किस रीति से बढ़ता है, अब इसको बताते हैं-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की अजघन्य स्थिति