Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०१,१०२
२१७
उससे दलिकों की निषेकरचना में द्विगुणहानि रूप जो अन्तर हैं वे असंख्यातगुण हैं । इसका कारण यह है कि वे पल्योपम के पहले वर्गमूल के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण हैं ।
उनसे निषेकरचना में जो द्विगुणहानि होती है, उसके एक अंतर के जो निषेकस्थान हैं, वे असंख्यातगुण हैं, क्योंकि वे पल्योपम के असंख्यातवर्गमूल के जितने समय होते हैं, उतने हैं ।
उनसे अबाधास्थान और कंडकस्थान का जोड़ असंख्यातगुण है । क्योंकि उनमें अबाधास्थान तो पहले कहे जा चुके हैं और कंडक - स्थान भी उतने ही हैं यह भी पहले कहा जा चुका है । इन दोनों के समुदित स्थान एक अंतर के निषेकस्थानों से असंख्यातगुणे हैं । 2
१. स्वोपज्ञ वृत्ति में भी इसी प्रकार कहा है – 'अबाधा च कण्डकानि च अबाधा कंडकं समाहारो द्वन्द्वः तस्य स्थानानितयोर्द्वयोरपि स्थान संख्येति भावः अर्थात् अबाधा और कंडक इन दोनों की स्थान संख्या असंख्यातगुण है । परन्तु यहां प्रश्न होता है कि अबाधास्थान और कंडकस्थान ये प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त न्यून सात हजार वर्ष के समय प्रमाण हैं और इन दोनों का योग करने पर दुगने होते हैं । परन्तु यहाँ उन एक-एक स्थानों से उत्कृष्ट अबाधा विशेषाधिक कही है और उसके बाद कुल द्विगुण हानिस्थान और एक द्विगुण हानि के अन्तर के निषेवस्थान एक-एक से असंख्यातगुण बताकर इन दोनों स्थानों के समूह को असंख्यागुण कहा है, वह कैसे घटित हो, यह समझ में नहीं आया है । इसी स्थान में कर्मप्रकृति बंधनकरण गाथा ८६ में 'अर्धन कंडक' कहा है और दोनों टीकाकार आचार्यों ने उसका अर्थ – 'जघन्य अबाधाहीन उत्कृष्ट अबाधा द्वारा
-
जघन्य स्थिति हीन उत्कृष्ट स्थिति को भाग देने पर जो आये अर्थात् एक समय रूप अबाधा की हानि-वृद्धि में जो पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिबंध की हानिवृद्धि होती है, उतना पल्योपम का असंख्यातवां भाग इस प्रकार कहा है और वह 'अर्धेन कंडक' इससे पूर्व कहे द्विगुण हानि के एक अंतर के निषेकस्थानों की अपेक्षा असंख्यातगुण सम्भव हो सकते हैं । विशेष स्पष्टीकरण करने का विद्वज्जनों से निवेदन है ।