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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१
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द्विचरम स्थिति में होते हैं तथा अन्य नवीन होते हैं । द्विचरम स्थिति में जो रसबन्धाध्यवसाय होते हैं, वे सभी त्रिचरम स्थितिस्थान बाँधते होते हैं तथा अन्य नवीन भी होते हैं। इस प्रकार वहाँ तक कहना चाहिये यावत् अभव्यप्रायोग्य जघन्य अनुभाग बन्ध के विषयभूत स्थावर नाम-कर्म की स्थिति प्रमाण स्थिति प्राप्त हो। अर्थात् जिस जघन्य स्थितिस्थान पर्यन्त त्रसनामकर्मस्थावरनामकर्म के साथ परावर्तमान भाव से बन्धता है, वह स्थिति आये वहाँ तक 'वह और अन्य' इस क्रम से अनुकृष्टि कहना चाहिये। ___ अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थिति बाँधते जो रसबन्ध के अध्यवसाय होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी उससे नीचे की स्थिति बाँधते कि जहाँ शुद्ध त्रसनामकर्म ही बँधता है वहाँ होते हैं तथा दूसरे नवीन भी होते हैं । उस पूर्वोक्त स्थिति बाँधते जो रसबंधाध्यवसाय होते हैं उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सब उससे नीचे के स्थितिस्थान में होते हैं एवं दूसरे नवीन भी होते हैं। इस प्रकार वहाँ तक कहना चाहिये, यावत् पल्योपम के असंख्यातवें भाग गत समय प्रमाण स्थिति स्थान जायें।
यहाँ अन्तिम स्थितिस्थान में अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिस्थान के यानि जिस स्थितिस्थान से शुद्ध त्रसनामकर्म ही बंधता है उससे पहले के स्थान के रसबंधाध्यवसाय की अनुकृष्टि समाप्त होती है । उससे नीचे के स्थितिस्थान में जिस स्थितिस्थान में शुद्ध त्रसनामकर्म बंधता है, उस स्थान की अनुकृष्टि समाप्त होती है। इस प्रकार अनुकृष्टि और समाप्ति वहाँ तक कहना चाहिये यावत् जघन्य स्थिति प्राप्त हो। ___ इसी प्रकार बादर-पर्याप्त और प्रत्येक नामकर्मों की भी अनुकृष्टि जानना चाहिये। १. मचतुष्क की अनुकृष्टि का स्पष्टीकरण और प्रारूप परिशिष्ट में
देखिये।