Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१
१६१ अब त्रसचतुष्क की अनुकृष्टि का कथन करते हैं। त्रसचतुष्क की अनुकृष्टि एवं कंडक स्वरूप
अट्ठारस कोडीओ परघायकमेण तसचउक्केवि ।
कंडं निव्वत्तणकंडकं च पल्लस्ससंखंसो ॥१॥ शब्दार्थ-अट्ठारस कोडीओ-अठारह कोडाकोडी तक परघायकमेण -पराघात के क्रम से, तसचउक्केवि-त्रस चतुष्क की भी, कंडं-कंडक, निव्वत्तणं कंडकं–निर्वर्तन कंडक, च-और, पल्लस्ससंखंसो--पल्य का असंख्यातवां भाग ।
गाथार्थ-अठारह कोडाकोडी तक पराघात के क्रम से त्रसचतुष्क की अनुकृष्टि कहना चाहिये। पल्य के असंख्यातवें भाग गत समयप्रमाण संख्या का कंडक अथवा निर्वर्तन कंडक नाम है।
विशेषार्थ-गाथा में त्रसचतुष्क की अनुकृष्टि प्ररूपणा करते हुए कंडक-निर्वर्तन कंडक का स्वरूप बतलाया है। पहले त्रसचतुष्क की अनुकृष्टि का निर्देश करते हैं
त्रसचतुष्क में बीस कोडाकोडी सागरोपम के स्थितिस्थान से लेकर नीचे अठारह कोडाकोडी सागरोपम के स्थितिस्थान तक अनुकृष्टि पराघात के समान कहना चाहिये और स्थावर के साथ परावर्तन परिणाम से जिस स्थितिस्थान से बन्ध प्रारम्भ होता है, उस स्थितिस्थान से साता की तरह अनुकृष्टि कहना चाहिये । अर्थात् अठारहवीं कोडाकोडी के अन्तिम समय से साता की तरह अनुकृष्टि कहना चाहिये । जिसका आशय यह है कि बसचतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है और उसके प्रतिपक्षभूत सूक्ष्मत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है, जिससे बीस से अठारह कोडाकोडी तक के बादरत्रिक के स्थितिस्थान शुद्ध हैं। क्योंकि वे प्रतिपक्ष प्रकृति के साथ परावृत्ति से बंधते नहीं हैं और त्रस की प्रतिपक्षी स्थावर नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति त्रस के समान बीस कोडाकोड़ी होने पर भी त्रसनामकर्म की बीस से अठारह