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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६०
१८६ प्रायोग्य जो जघन्य स्थिति बँधती है, वहाँ तक 'तदेकदेश और अन्य' इस कम से अनुकृष्टि का कथन करना चाहिये, उसके बाद से आरम्भ कर मनुष्यद्विक और उच्च गोत्र ये शुभ प्रकृति तथा तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र ये अशुभ प्रकृति इन दोनों वर्गों की अनुकृष्टि शुभाशुभ परावर्तमान प्रकृतियों के वर्ग की तरह कहना चाहिये।
विशदता के साथ जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
मनुष्यगति आदि शुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि का कथन तो पूर्व में किया जा चुका है । यहाँ तिर्यंचद्विक और नीच गोत्र की अनुकृष्टि को कहते हैं-सातवीं नरकपृथ्वी में वर्तमान नारक के जिस समय सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, उससे पहले के समय में तिर्यंचगति की जघन्य स्थिति बाँधते जो रसबन्ध के हेतुभूत अध्यवसाय हैं उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सब समयाधिक जघन्य स्थिति बाँधते भी होते हैं तथा अन्य दूसरे नवीन भी होते हैं। समयाधिक जघन्य स्थिति बाँधते जो रसबन्धाध्यवसाय होते हैं, उनका असंख्यातवाँ भाग छोड़कर शेष सब दो समयाधिक जघन्य स्थिति बाँधते हुए होते हैं तथा अन्य दूसरे भी नवीन होते हैं। इस प्रकार वहाँ तक कहना चाहिये यावत् पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थान हों। __ पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थानों में के अंतिम स्थितिस्थान में जघन्य स्थितिबंध सम्बन्धी रसबंधाध्यवसाय की अनुकृष्टि समाप्त होती है। उसके बाद के स्थितिस्थान में समयाधिक जघन्य स्थितिबंध संबंधी अध्यवसायों की अनुकृष्टि समाप्त होती है । उसके अनन्तरवर्ती स्थान में दो समयाधिक जघन्य स्थितिबंध सम्बन्धी अध्यवसायों की अनुकृष्टि समाप्त होती है। इस प्रकार वहाँ तक कहना चाहिये यावत् अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध प्राप्त हो। ___ अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध करने पर जो रसबंध के अध्यवसाय होते हैं, वे सभी समयाधिक अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध करने पर होते हैं तथा दूसरे नवीन भी होते हैं । समयाधिक