Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८७, ८८, ८६
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और समाप्ति असाता की उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त कहना चाहिये ।
स्थावरदशक नरकद्विक आदि कुल मिलाकर परावर्तमान सत्ताईस अशुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि इसी प्रकार से कहना चाहिये। ___ स्थापना में अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध पर्यन्त अनुकृष्टि का विचार करने के लिए संकेत किया है। उसके अन्दर जो विशेष है, अब उसको स्पष्ट करते हैं कि_ 'मोत्तूण नीयमियरासुभाणं' इस गाथांश में ग्रहण किया गया नीचगोत्र यह अन्य प्रकृतियों का उपलक्षण सूचक होने से तिर्यंचद्विक का भी ग्रहण करना चाहिये । अतएव तिर्यंचद्विक और नीच गोत्र को छोड़कर शेष असातावेदनीय आदि परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों का जो अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध स्थापना में स्थापित किया है, उससे भी अल्प स्थितिबन्ध उनकी अपनी-अपनी प्रतिपक्ष सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध से अल्प स्थितिवन्ध तक जाती है । क्योंकि छठे गुणस्थान में असातावेदनीय का जो जघन्य स्थितिबन्ध होता है उस जघन्य स्थितिबन्ध से तो साता के साथ परावर्तमान भाव प्राप्त करता है वहाँ से तो वह
और अन्य' इस क्रम से अनुकृष्टि होती है परन्तु जिस परिणाम से छठे गुणस्थान में असाता का जघन्य स्थितिबन्ध होता है, उससे भी शुभ परिणाम में जब अकेली साता का ही बन्ध होता है, वहाँ 'तदेकदेश
और अन्य' इस क्रम से अनुकृष्टि होती है। अतः अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध से भी कम स्थितिबन्ध स्थापना में स्थापित करना चाहिए, यह कहा है।
इस प्रकार अपरावर्तमान अशुभ-शुभ परावर्तमान शुभ-अशुभ इन चारों वर्गों की अनुकृष्टि की प्ररूपणा जानना चाहिये। अब तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र की अनुकृष्टि का विचार करते हैं ।
१ इन चारों वर्गों की अनुकृष्टि को असत्कल्पना द्वारा स्पष्ट करने के प्रारूप
परिशिष्ट में देखिये।