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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८७, ८८, ८६
१८५ इसके बाद के शुद्ध स्थानों में जो क्रम प्रवर्तित होता है, अब उसको स्पष्ट करते हैं कि असाता की अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध के तुल्य साता की स्थिति बाँधते हुए जो रसबंधाध्यवसाय होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सब साता के जघन्य बंधस्थान से नीचे के कि जहां केवल सातावेदनीय का ही बंध होता है, उस स्थितिस्थान में होते हैं और दूसरे नवीन होते हैं। उस स्थान में जो रसबंधाध्यवसाय हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सब उससे नीचे के स्थान में होते हैं और दूसरे नवीन होते हैं । इस प्रकार पूर्वपूर्व स्थान में जो-जो रस बंधाध्यवसाय होते हैं, उनका असंख्यातवांअसंख्यातवां भाग प्रति स्थितिस्थान में कम-कम करते हए वहां तक कहना चाहिये कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियां जायें। ___ पल्योपम के असंख्यातवें भाग के अंतिम समय में असाता के जघन्य स्थितिबंध जितने साता के जघन्य स्थितिबंध में के रसबंधाध्यवसाय की अनुकृष्टि समाप्त होती है, उससे नीचे के स्थान में असाता के जघन्य स्थितिबंध तुल्य स्थितिस्थान से नीचे के स्थान के रसबंधाध्यवसाय की यानि जिस स्थितिस्थान में शुद्ध साता ही बंधती है, उस स्थान के रसबंधाध्यवसाय की अनुकृष्टि समाप्त होती है । इस प्रकार अनुकृष्टि और समाप्ति वहां तक कहना चाहिये कि साता की जघन्य स्थिति प्राप्त हो। ___ इसी क्रम से स्थिरनामकर्म आदि परावर्तमान शुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि जानना चाहिये।
अब असातावेदनीय की अनुकृष्टि कहते हैं। साता के साथ परावर्तमान परिणाम से छठे गुणस्थान में असाता की जो जघन्य स्थिति बंधती है, उसको बांधते हुए जो रसबंधाध्यवसाय होते हैं, वे सभी समयाधिक स्थिति बांधते हुए होते हैं तथा अन्य नवीन भी होते हैं। समयाधिक स्थिति बांधते हुए जो अध्यवसाय होते हैं, वे सभी दो समयाधिक स्थिति बांधते हुए होते हैं तथा अन्य दूसरे नवीन भी होते