________________
१२८
पंचसंग्रह : ६ अन्नं अन्य-दूसरा, छट्ठाणयं-षट्स्थान, पुणो–पुनः, अन्नं-अन्य तीसरा, एवमसंखालोगा-इस प्रकार असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, छट्ठाणाणंषट्स्थानों को, मुणेयवा-जानना चाहिये ।
गाथार्थ-एक (पहला) षट्स्थान पूर्ण होने के बाद अन्य दुसरा, पुनः उसके बाद अन्य तीसरा, इस प्रकार असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण षट्स्थानों को जानना चाहिये।
विशेषार्थ-पहला षट्स्थान पूर्ण होने के पश्चात्-'छट्ठाणग अवसाणे', दूसरा षट्स्थान होता है । तत्पश्चात् इसी क्रम से 'पुणो अन्नं' अन्य तीसरा, इस प्रकार असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण असंख्यात षट्स्थान होते हैं और षट्स्थानों में अनन्त भागादि भागवृद्धि और संख्येय गुणादि गुणवृद्धि आदि के कंडक किस क्रम से होते हैं यह पूर्व में नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा में विस्तार से कहा है, तदनुसार यहां समझ लेना चाहिये । क्योंकि उसी प्रकार यहां भी होते हैं।
इस प्रकार से षट्स्थान प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब क्रमप्राप्त अधस्तनस्थान प्ररूपणा का विचार करते हैं । अधस्तनस्थान प्ररूपणा
सव्वासिं वुड्ढीणं कंडगमेत्ता अणंतरा वुड्ढी । एगंतराउ वुड्ढी वग्गो कंडस्स कंडं च ॥५२॥ कंडं कंडस्स घणो वग्गो दुगुणो दुगंतराए उ । कंडस्स वग्गवग्गो घण वग्गा तिगुणिया कंडं ॥५३॥ अडकंड वग्गवग्गा वग्गा चत्तारि छग्घणा कंडं ।
चउ अंतर वुड्ढीए हेठ्ठट्ठाण परूवणया ॥४॥ शब्दार्थ-सव्वासिं-सभी, वुड्ढीणं-वृद्धियां, कंडगमेत्ता-कंडक मात्र, अणंतरा--अनन्तर, वुड्ढी-वृद्धि, एगंतरा-एकांतरित, उ-और, वुड्ढी-वृद्धि, वग्गो कंडस्स--कंडक का वर्ग, कंडं-कंडक, च-तथा ।