Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६
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अनन्तभाग से अन्तरित असंख्यात भागवृद्ध स्थान कंडकप्रमाण होते हैं, उसके बाद संख्यातभागादि स्थान होते हैं, उसी प्रकार दूसरे षट्स्थान के प्रारम्भ में भी अनन्तभागवृद्ध स्थान कंडक प्रमाण होते हैं, उसके बाद असंख्यातभागादि स्थान होकर दूसरा षट्स्थान पूर्ण होता है । इसी क्रम से तीसरा । इस प्रकार असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण षट्स्थान होते हैं ।
इस प्रकार से पर्यवसान प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब अल्पबहुत्व प्ररूपणा करते हैं ।
अल्पबहुत्व प्ररूपणा
सव्वत्थवा ठाणा अनंतगुणणाए जे उ गच्छति । तत्तो असंखगुणिया नंतरबुड्ढीए जहा हेट्ठा ॥ ५६ ॥ शब्दार्थ - सव्वत्थोवा - सर्व स्तोक ( सबसे अल्प), ठाणा - स्थान, अनंतगुणणाए - अनन्तगुणता से, जे उ-जो, गच्छंति — प्राप्त होते हैं, तत्तोउनसे, असंखगुणिया – असंख्यात गुणित, नंतर वुड्ढीए - अनन्तर वृद्धि से, जहा -- यथा, हेट्ठा — नीचे के |
गाथार्थ - अनन्त गुणता से वृद्धि को प्राप्त होने वाले स्थान अर्थात् अनन्तगुणवृद्धि वाले स्थान सबसे अल्प हैं, उससे नीचे - नीचे स्थित अनन्तर वृद्धि वाले स्थान क्रमशः असंख्यातगुणेअसंख्यातगुणे हैं।
विशेषार्थ - इस गाथा में षट्स्थान की वृद्धियों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा का कथन प्रारम्भ किया गया है । इस प्ररूपणा के दो प्रकार है— अनन्तरोपनिधा और परंपरोपनिधा । उनमें से यहाँ अनन्तरोपनिधा द्वारा अल्पबहुत्व प्ररूपणा का निर्देश किया है
जो स्थान अनन्तगुणवृद्धि वाले हैं, वे अल्प हैं— 'सव्वत्थोवा' और उसके बाद होने वाली अनन्तर - अनन्तर वृद्धि की अपेक्षा होने वाले नीचेनीचे के स्थान क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे - असंख्यातगुणे हैं । इसका तात्पर्यार्थ इस प्रकार है