Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७२ लेश्याजन्य असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण परिणाम भी कारण हैं। इसलिये लेश्याजन्य परिणामयुक्त कषायोदय स्थान द्वारा रसबंध होता है। उदाहरणार्थ-एक हजार जीवों का कषायोदय रूप कारण एक सरीखा ही हो और उससे स्थितिबंध एक ही तरह से भोगा जाये, वैसा हो फिर भी रसबंध समान रीति से भोगा जाये ऐसा नहीं भी होता है । लेश्या के भिन्न-भिन्न परिणाम रूप निमित्त द्वारा अलगअलग रीति से भोगा जाये वैसा भी रसबंध हो। इस प्रकार कषायोदययुक्त लेश्या के परिणाम रसबंध में हेतु हैं। एक-एक कषायोदय में रसबंध के हेतुभूत असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण लेश्याजन्य परिणाम होते हैं, जिससे स्थिति एक जैसी बांधने पर भी रस अल्पाधिक बंधता है। ____ जघन्य स्थिति बांधते हुए जघन्य कषाय से लेकर असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण कषायोदय कारण हैं, समयाधिक बांधते हुए उसके बाद के उतने ही कषायोदय कारण हैं, इस प्रकार जैसे विभाग हैं, उसी तरह अमुक प्रकार का कषायोदय हो तब अमुक लेश्या के परिणाम हों और उस समय अमुक रसस्थान बंधे, ऐसा विभाग होता है, जो आगे अनुकृष्टि के वर्णन में स्पष्ट किया जा रहा है । इसलिये एक-एक कषायोदय अनेक जीवों की अपेक्षा से तीव्र, तीव्रतर, मंद, मंदतर आदि लेश्याजन्य अनेक परिणाम होने से असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण रसबंध के अध्यवसाय मानना विरुद्ध नहीं है।
अब प्रत्येक कषायोदय में रसबंध के अध्यवसाय क्रमशः किस रीति से बढ़ते हैं, इसका विचार करते हैं । उस विचार के दो प्रकार हैं-अनन्तरोपनिधा और परंपरोपनिधा। इनमें से पहले अनन्तरोपनिधा द्वारा विचार करते हैं।
थोवाणुभागठाणा जहन्नठिइपढमबंधहेउम्मि।
तत्तो विसेसअहिया जा चरमाए चरमहेउ ॥७२॥ शब्दार्थ--थोवाणुभागठाणा-अनुभाग बंध के स्थान स्तोक, जहन्नठिइ