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पंचसंग्रह : ६ स्थान कहलाता है। इनमें का कोई भी एक स्थितिस्थान एक समय में एक साथ बंधता है । इस प्रकार असंख्यात स्थितिस्थान होते हैं । - इन स्थितिस्थानों के बंध में हेतुभूत तीव, मंद आदि भेद वाले कषायोदय के स्थान हैं और वे जघन्य कषायोदय से लेकर क्रमशः बढ़ते हुए उत्कृष्ट कषायोदय पर्यन्त असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं । अर्थात् एक-एक स्थितिस्थान के बंध में हेतुभूत नाना जीवों की अपेक्षा असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण कषायोदय के स्थान होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्थिति समान बंधती है, लेकिन कषायोदय भिन्न-भिन्न होते हैं और भिन्न-भिन्न कषायोदय रूप कारणों द्वारा एक ही स्थितिस्थान का बंध रूप कार्य होता है।
यहाँ यह शंका होती है कि कारणों के अनेक होने पर भी कार्य एक ही कैसे होता है ? तो इसके उत्तर में यह समझना चाहिये कि कषायोदय रूप कारण अनेक होने पर भी सामान्यतः एक ही स्थितिस्थान का बंध रूप कार्य यद्यपि एक ही होता है, लेकिन जो स्थितिस्थान बंधता है, वह एक ही सदृश रूप में भोगा जाये वैसा नहीं बंधता है, परन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव आदि अनेक प्रकार की विचित्रताओं से युक्त बंधता है । भिन्न-भिन्न द्रव्यों रूप निमित्त के द्वारा भिन्न-भिन्न क्षेत्र में, भिन्न-भिन्न काल में और पृथक्-पृथक् भवों में जो एक ही स्थितिस्थान अनुभव किया जाता है, यदि उसके बंध में अनेक कषायोदय रूप अनेक कारण न हों तो वह अनुभव नहीं किया जा सकता है । बंध में एक ही कारण हो तो बांधने वाले सभी एक ही तरह से अनुभव करें, लेकिन एक ही स्थितिस्थान भिन्नभिन्न जीव द्रव्यादि भिन्न-भिन्न सामग्री को प्राप्त करके अनुभव करते हैं। वह अलग-अलग कषायोदय रूप भिन्न-भिन्न कारणों के द्वारा ही संभव है। . अब रसबंध के हेतुभूत अध्यवसायों के संबंध में कहते हैं-एकएक कषायोदय में असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अनुभाग बंध के स्थान हैं। रसबंध में शुद्ध कषायोदय ही कारण नहीं है, किन्तु