Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६
नाम, अगुरुलघुनाम, उच्छ्वासनामत्रिक (उच्छ्वास, आतप, उद्योतनाम), पाँच संघातननाम-कुल मिलाकर छियालीस प्रकृतियाँ अपरावर्तमान शुभ प्रकृतिवर्ग में ग्रहण की जाती हैं।
विशेषार्थ-अनुकृष्टि के लिये जो प्रकृतियाँ अपरावर्तमान शुभ प्रकृति वर्ग में ग्रहण की जाती हैं, उनके नाम गाथा में गिनाये हैं। ऐसी प्रकृतियाँ छियालीस हैं एवं ये सभी नामकर्म की हैं।
अब तीसरे परावर्तमान शुभ प्रकृतिवर्ग में ग्रहण की गई प्रकृतियों के नाम गिनाते हैं। परावर्तमान शुभ प्रकृतिवर्ग __सायं थिराइ उच्चं सुरमणु दो-दो पणिदि चउरंसं ।
रिसह पसत्थविहगई सोलस परियत्तसुभवग्गो ॥१॥ शब्दार्थ-सायं-सातावेदनीय, थिराइ-स्थिरादि षट्क, उच्च-उच्चगोत्र, सुरमणु दो-दो-देवद्विक, मनुष्यद्विक, पणिदि-पंचेन्द्रिय जाति, चउरंसं -समचतुरस्रसंस्थान, रिसह-वज्रऋषभनाराचसंहनन, पसथविहगईशुभ विहायोगति, सोलस-सोलह, परियत्तसुभवग्गो-परावर्तमान शुभ प्रकृतिवर्ग।
गाथार्थ—सातावेदनीय, स्थिरादि षट्क (स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति), उच्चगोत्र, देवद्विक, (देवगति, देवानुपूर्वी), मनुष्यद्विक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी), पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्र-संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, शुभ विहायोगति ये सोलह प्रकृतियाँ परावर्तमान शुभ प्रकृतिवर्ग की हैं।
विशेषार्थ-परावर्तमान शुभ प्रकृति वर्ग नामक तीसरे वर्ग में जो प्रकृतियाँ ग्रहण की गई हैं, उनके नाम गाथा में बतलाये हैं । ये शुभ प्रकृतियाँ अघातिकर्मों की हैं।
अब चौथे परावर्तमान अशुभ प्रकृतिवर्ग की प्रकृतियों को बतलाते हैं।