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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८०
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है । उपघातनाम, घातिकर्म और अशुभवर्णादिनवक यह अशुभ वर्ग है ।
विशेषार्थ - वर्ग वर्ग में अनुकृष्टि और तीव्रता - मंदता का विचार एक जैसा होने से जिन-जिन कर्मप्रकृतियों में अनुकृष्टि एवं तीव्रतामंदता प्रायः समान होती है । उन-उनके वर्ग बना लिये जाते हैं । ऐसी प्रकृतियाँ चार वर्गों में विभाजित हैं
(१) अपरावर्तमान अशुभ प्रकृतिवर्ग, (२) अपरावर्तमान शुभ प्रकृतिवर्ग, (३) परावर्तमान शुभ प्रकृतिवर्ग, (४) परावर्तमान अशुभ प्रकृतिवर्ग ।
उक्त चार वर्गों में से उपघातनाम तथा ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, मिथ्यात्वमोहनीय, सोलह कषाय, नव नोकषाय, अंतराय - पंचक रूप पैंतालीस घाति प्रकृति और कृष्ण, नील वर्ण, दुरभिगंध, कटुक, तिक्त रस, गुरु, कर्कश, शीत, रूक्ष स्पर्श ये अशुभ वर्णादि नवक इस तरह कुल मिलाकर पचपन प्रकृतियाँ पहले अपरावर्तमान अशुभ प्रकृतिवर्ग में ग्रहण की जाती हैं ।
अब अपरावर्तमान शुभ प्रकृतिवर्ग में ग्रहण की गई प्रकृतियों को बतलाते हैं ।
अपरावर्तमान शुभ प्रकृतिवर्ग
परघायबंधणतणु अंग सुवन्नाइ तित्थनिम्माणं । अगुरुलघूसास तिगं संघाय छयाल सुभवग्गो ॥ ८० ॥
शब्दार्थ - परघाय -- पराधान, बंधण - पन्द्रह बंधन नामकर्म, तणु — पाँच शरीरनामकर्म, अंग - तीन अंगोपांगनामकर्म, सुवन्नाइ - शुभ वर्ण आदि ग्यारह, तित्थ -- तीर्थंकरनाम, निम्माणं - निर्माणनामकर्म, अगरुलघु - अगुरुलघुनामकर्म, उसासतिगं— उच्छ्वास नाम त्रिक, संघाय - पाँच संघातन नाम, छयाल - छियालीस, सुभग्गो - शुभ वर्ग 1 गाथार्थ - पराघातनाम, पन्द्रहबंधननाम, पाँच शरीरनाम, तीन अंगोपांगनाम, शुभ वर्णादि ग्यारह निर्माणनाम, तीर्थंकर
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