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पंचसंग्रह : ६ ___ जा-जो, पडिवक्खक्कता-प्रतिपक्ष से आक्रान्त हैं, ठिईओ-स्थितियां, ताणं-उनका, कमो-क्रम, इमो-यह, होइ-होता है, ताणन्नाणिय-वही और अन्य, ठाणा-स्थान, सुद्धठिईणं-शुद्ध स्थितियों का, तु-और, पुष्वकमो-पूर्वोक्त क्रम। ___ मोसूण-छोड़ कर, नीयं--नीच गोत्र के, इयरासुभाणं-इतर अशुभ प्रकृतियों का, जो-जो-जो-जो, जहन्न ठिइबंधो-जघन्य स्थितिबंध, नियपडिवक्खसुभाणं-अपनी प्रतिपक्ष शुभ प्रकृतियों का, ठावेय-वो-स्थापित करना चाहिये, जहन्नयरो-जघन्यतर।
गाथार्थ-सप्रतिपक्ष असाता और साता वेदनीय आदि प्रकृतियों के अन्तःकोडाकोडी आदि अपने-अपने स्थितिस्थान स्थापित कर फिर उनकी अनुकृष्टि का कथन करना चाहिये। __जो स्थितियां प्रतिपक्ष से आक्रांत हैं, उनमें वही और अन्य यह क्रम है और शुद्ध स्थितियों का पूर्वोक्त कम है। - नीच गोत्र को छोड़कर इतर अशुभ प्रकृतियों का जो-जो जघन्य स्थितिबंध होता है, उनसे भी जघन्यतर स्थितिबंध उनकी अपनी प्रतिपक्षभूत शुभ प्रकृतियों का स्थापित करना चाहिये।
विशेषार्थ-इन तीन गाथाओं में परावर्तमान प्रकृतियों की अनुकृष्टि की प्रक्रिया का निर्देश किया है । ___परावर्तमान प्रकृतियों की और पूर्वोक्त अपरावर्तमान प्रकृतियों की अनुकृष्टि में कुछ अन्तर है और वह इस प्रकार कि-प्रतिपक्ष वाली जो प्रकृतियाँ होती हैं वे सप्रतिपक्षा कहलाती हैं, जैसे कि साता-असाता आदि । उन परस्पर विरोधी साता-असाता वेदनीय आदि प्रकृतियों के अन्तःकोडाकोडी से लेकर स्थितिस्थान स्थापित करना चाहिये । इसका कारण यह है कि अभव्य का जघन्य स्थितिबंध अन्तःकोडाकोडी प्रमाण है और अभव्य के जघन्य स्थितिबंध से लेकर प्रायः अनुकृष्टि प्रारंभ होती है । इसीलिये यहाँ स्थापना में अन्तःकोडाकोडी आदि स्थान स्थापित करने का संकेत किया है।