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________________ १८२ पंचसंग्रह : ६ ___ जा-जो, पडिवक्खक्कता-प्रतिपक्ष से आक्रान्त हैं, ठिईओ-स्थितियां, ताणं-उनका, कमो-क्रम, इमो-यह, होइ-होता है, ताणन्नाणिय-वही और अन्य, ठाणा-स्थान, सुद्धठिईणं-शुद्ध स्थितियों का, तु-और, पुष्वकमो-पूर्वोक्त क्रम। ___ मोसूण-छोड़ कर, नीयं--नीच गोत्र के, इयरासुभाणं-इतर अशुभ प्रकृतियों का, जो-जो-जो-जो, जहन्न ठिइबंधो-जघन्य स्थितिबंध, नियपडिवक्खसुभाणं-अपनी प्रतिपक्ष शुभ प्रकृतियों का, ठावेय-वो-स्थापित करना चाहिये, जहन्नयरो-जघन्यतर। गाथार्थ-सप्रतिपक्ष असाता और साता वेदनीय आदि प्रकृतियों के अन्तःकोडाकोडी आदि अपने-अपने स्थितिस्थान स्थापित कर फिर उनकी अनुकृष्टि का कथन करना चाहिये। __जो स्थितियां प्रतिपक्ष से आक्रांत हैं, उनमें वही और अन्य यह क्रम है और शुद्ध स्थितियों का पूर्वोक्त कम है। - नीच गोत्र को छोड़कर इतर अशुभ प्रकृतियों का जो-जो जघन्य स्थितिबंध होता है, उनसे भी जघन्यतर स्थितिबंध उनकी अपनी प्रतिपक्षभूत शुभ प्रकृतियों का स्थापित करना चाहिये। विशेषार्थ-इन तीन गाथाओं में परावर्तमान प्रकृतियों की अनुकृष्टि की प्रक्रिया का निर्देश किया है । ___परावर्तमान प्रकृतियों की और पूर्वोक्त अपरावर्तमान प्रकृतियों की अनुकृष्टि में कुछ अन्तर है और वह इस प्रकार कि-प्रतिपक्ष वाली जो प्रकृतियाँ होती हैं वे सप्रतिपक्षा कहलाती हैं, जैसे कि साता-असाता आदि । उन परस्पर विरोधी साता-असाता वेदनीय आदि प्रकृतियों के अन्तःकोडाकोडी से लेकर स्थितिस्थान स्थापित करना चाहिये । इसका कारण यह है कि अभव्य का जघन्य स्थितिबंध अन्तःकोडाकोडी प्रमाण है और अभव्य के जघन्य स्थितिबंध से लेकर प्रायः अनुकृष्टि प्रारंभ होती है । इसीलिये यहाँ स्थापना में अन्तःकोडाकोडी आदि स्थान स्थापित करने का संकेत किया है।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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