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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८७, ८८, ८६ १८३ इस प्रकार स्थापित करके सातावेदनीय के उत्कृष्ट स्थितिस्थान से प्रारंभ कर अधोमुखी क्रम से और असातावेदनीय की अंतःकोडाकोडी प्रमाण स्थान से प्रारंभ कर ऊर्ध्वमुखी क्रम से अनेक सैकड़ों सागरोपम प्रमाण स्थितिस्थान परस्पर आक्रांत होते हैं। क्योंकि इतने स्थितिस्थान परावर्तमान परिणामों से बंधते हैं, यानि इतने स्थानों में साता-असाता वेदनीय एक के बाद एक इस क्रम से अदलबदल कर बंधती हैं। बाकी के सातावेदनीय के नीचे अधोमुख से और असाता के ऊपर ऊर्ध्वमुख से अपनी-अपनी चरम स्थिति पर्यन्त स्थितिस्थान स्थापित करना चाहिये । ये सभी स्थान बांधते हुए प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बंध का अभाव होने से विशुद्धि और संक्लेश के वश वे अकेले ही बंधते रहते हैं, इसीलिये वे शुद्ध कहलाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि छठवें गुणस्थान में असातावेदनीय की कम से कम जो अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति बंधती है, वहां से लेकर उत्कृष्ट पन्द्रह कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिबंध पर्यन्त के स्थितिस्थानों में साता-असाता वेदनीय अदल-बदल कर बंधती रहती है। उतने स्थानों में साता भी बंध सकती है और असाता भी बंध सकती है। इसीलिये वे परस्पर आक्रांत स्थिति कहलाती हैं। साता को दबाकर असाता बंध सकती है और असाता को दबाकर साता बंध सकती है। समयाधिक पन्द्रह कोडाकोडी से लेकर तीस कोडाकोडी प्रमाण के स्थितिबंध पर्यन्त अकेली असाता ही बंधती है, यानि वह शुद्ध कहलाती है। उन स्थानों का बंध होने पर सातावेदनीय नहीं बंधती है। छठवें गुणस्थान में असातावेदनीय की अंतःकोडाकोडी प्रमाण जो जघन्य स्थिति बंधती है, समयन्यून उस अंतःकोडाकोडी से लेकर साता के जघन्य स्थितिबंध पर्यन्त अकेली साता ही बंधती है। उन स्थानों में असातावेदनीय बंधती ही नहीं है, इसीलिये उसे शुद्ध कहते हैं। अब यह स्पष्ट करते हैं कि जितनी स्थितियां परस्पर आक्रांत हैं,
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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