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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८७, ८८, ८६ १८१ ___ यहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग के अंतिम समय में उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में रहे हुए रसबंधाध्यवसायों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है। फिर उससे नीचे के स्थितिस्थान में समयोन उत्कृष्ट स्थितिबंधारंभभावी रसबंधाध्यवसाय की अनुकृष्टि समाप्त होती है, उसके नीचे के स्थितिस्थान में दो समयन्यून उत्कृष्ट स्थितिबंधारंभभावी रसबंधाध्यवसाय की अनुकृष्टि समाप्त होती है। इस प्रकार अनुकृष्टि और समाप्ति वहाँ तक कहना चाहिये, यावत् पराघात आदि छियालीस अपरावर्तमान शुभ प्रकृतियों की अपनी-अपनी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है । अथवा इस प्रकार से पराघात आदि छियालीस प्रकृतियों की अनुकृष्टि और समाप्ति अपनी-अपनी जघन्य स्थिति पर्यन्त कहना चाहिये। इस प्रकार से अपरावर्तमान अशुभ और शुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि का विचार करने के पश्चात् अब परावर्तमान शुभ और अशुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि का कथन करते हैं। परावर्तमान शुभ-अशुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि सप्पडिवक्खाणं पुण असायसायाइयाण पगईणं । ठावेसु ठिइठाणा अंतोकोडाइ नियनियगा ॥७॥ जा पडिवक्खक्कता ठिईओ ताणं कमो इमो होइ । ताणन्नागिय ठाणा सुद्धठिईणं तु पुन्वकमो॥८॥ मोत्तूण नीयमियरासुभाणं जो जो जहन्नठिइबंधो। नियपडिवक्खसुभाणं ठावेयन्वो जहन्नयरो॥६॥ शब्दार्थ-सप्पडिवक्खाणं-सप्रतिपक्षा, पुण-फिर, असायसायाइयाण -असाता और साता वेदनीय आदि, पगईणं-प्रकृतियों के, ठावेसु-स्थापित करना, ठिकठाणा-स्थितिस्थान, अंतोकोडाइ–अन्तःकोडाकोडी आदि, नियनियगा-अपने-अपने ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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