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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८
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असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है। उनकी अपेक्षा जो जीव सूक्ष्म अग्निकाय रूप से रहे हुए हैं, वे असंख्यात गुणे हैं और उनसे भी उनका काय-स्थिति काल असंख्यातगुणा है और उनसे भी रसबंध के स्थान असंख्यात गुणे अधिक हैं।
वे रसबंध के स्थान असंख्यातगणे हैं, इस विशिष्ट संख्या को बताने के लिये जब ओजोयुग्म प्ररूपणा करते हैं। ओजोयुग्म प्ररूपणा
कलिबारतेयकडजुम्मसन्निया होंति रासिणी कमसो। एगाइ सेसगा चउहियंमि कडजुम्म इह सव्वे ॥८॥
शब्दार्थ-कलिबारतेयकडजुम्मसन्निया-कलि, द्वापर, त्रता कृतयुग्म संज्ञा वाली, होंति होती हैं, रासिणो-राशियां, कमसो-अनुक्रम से, एगाइ सेसगा—एक आदि शेष वाली, चउहियं मि–चार से भाग देने पर, कडजुम्म- कृतयुग्म, इह-यहाँ, सव्वे- सभी। ___ गाथार्थ-किसी संख्या को चार से भाग देने पर एक आदि शेष रहे तो ऐसी संख्या अनुक्रम से कलि, द्वापर, त्रेता और कृतयुग्म संज्ञा वाली कहलाती है। यहाँ सभी राशियां कृतयुग्म संज्ञा वाली हैं।
विशेषार्थ-गाथा में रसबंधस्थानों की संख्या के प्रसंग में ओजोयुग्म प्ररूपणा का कथन किया है कि विषमसंख्या को ओज कहते हैं यथा-एक, तीन, पाँच इत्यादि और समसंख्या को गुग्म कहते हैं, जैसे-दो, चार इत्यादि । जिस राशि को चार से भाग देने पर एक, दो, तीन शेष रहे और अंत में कुछ भी शेष न रहे वैसी राशियां अनुक्रम से कलि, द्वापर, त्रेता और कृतयुग्म संज्ञा वाली कहलाती
___ उक्त संक्षिप्त कथन का तात्पर्यार्थ यह हुआ कि कोई विवक्षित चार राशि स्थापित करें और उन्हें चार से भाग दे और चार से