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पंचसंग्रह : ६
जाव-यावत्-पर्यन्त, आवलि-आवलिका, असंखभागो-असंख्यातवें भाग, तसा-त्रस, ठाणे-स्थान में।
गाथार्थ-स्वप्रायोग्य एक-एक स्थान में एक से लेकर आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण पर्यन्त त्रस जीव असंख्यात और त्रस से इतर अर्थात् स्थावर अनन्त होते हैं। विशेषार्थ-यहाँ एक-एक स्थान में अनुभागबंध के बंधक जीवों का परिमाण बताया है कि त्रस जीवों के बंधयोग्य एक-एक अनुभागबंधस्थान में जघन्य एक से लेकर उत्कृष्ट-आवलिका के असंख्यातवें भाग में वर्तमान समय प्रमाण असंख्यात त्रस जीव होते हैं। अर्थात् इतने त्रस जीव उस-उस स्थान के बांधने वाले होते हैं और स्वप्रायोग्य स्थान के बांधने वाले स्थावर जीव अनन्त होते हैं, यानि स्थावरयोग्य प्रत्येक रसस्थान को बांधने वाले स्थावर जीव अनन्त होते हैं। __ इस प्रकार से रसबंधस्थान के बंधक जीवों का प्रमाण जानना चाहिए । अब अन्तरस्थानों का कथन करते हैं। अन्तरस्थान प्ररूपणा
तसजुत्तठाणविवरेसु सुन्नया होंति एक्कमाईया। जाव असंखा लोगा निरन्तरा थावरा ठाणा ॥६३॥ शब्दार्थ-तसजुत्तठाणविवरेसु-त्रसयोग्य स्थानों के बीच में, सुन्नयाशून्य (रहित), होति-होते हैं, एक्कमाईया-एक से लेकर, जाव-तक, असंखालोगा-असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, निरन्तरा-निरन्तर, थावरा ठाणा-स्थावर योग्य स्थान ।
गाथार्थ-त्रसयोग्य स्थानों के बीच में एक से लेकर असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों का अंतर पड़ता है और स्थावरयोग्य स्थानों में अंतर नहीं होता है ।
विशेषार्थ-त्रसयोग्य जो रसबंध स्थान त्रसों को बंध में प्राप्त नहीं होते हैं वे जघन्य से एक, दो और उत्कृष्ट असंख्यात लोकाकाश