Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४
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प्रदेश प्रमाण होते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि त्रस जीवों से उनके बंधयोग्य रसबंधस्थान असंख्यातगुणे हैं। जिससे यह संभव नहीं है कि वे सभी स्थान प्रति समय बंध को प्राप्त हों ही, कितने ही बंधते हैं और कितनेक नहीं बंधते हैं। विवक्षित समय में जो न बंधे वे जघन्य से एक दो और उत्कृष्ट से असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। इसीलिये यह कहा है कि बीच-बीच में असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों का अंतर पड़ता है। ___ स्थावरयोग्य जो स्थान हैं, वे सभी निरन्तर बंधते हैं । त्रस जीवों जैसे बीच-बीच में बंधश्न्य स्थान नहीं होते हैं। क्योंकि स्थावर जीव अनन्त हैं और उनके योग्य बंधस्थान असंख्यात ही हैं।
इस प्रकार अंतरस्थानों के प्रमाण की प्ररूपणा जानना चाहिये । अब निरन्तर कितने स्थान बंधते हैं, और उनके काल का विचार करते हैं। निरंतरस्थानबंध प्ररूपणा
दोआइ जाव आलिअसंखभागो निरंतर तसेहिं । नागाजीपहिं ठाणं असुन्नयं आलि असंखं ॥६४॥ शब्दार्थ-दोआइ-दो से लेकर, जाव-तक, आवलिअसंखभागोआवलिका के असंख्यातवें भाग, निरंतर-निरन्तर, तसेहि-त्रस जीवों द्वारा, नाणाजीएहि-अनेक जीवों द्वारा, ठाणं-स्थान, असुन्नयं-अशून्य, आवलि असंखं आवलिका के असंख्यातवें भाग ।
गाथार्थ-दो से लेकर आवलिका के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण स्थान त्रस जीवों द्वारा निरंतर बंधते हैं और अनेक जीवों द्वारा बांधे जा रहे रसबंधस्थान आवलिका के असंख्यातवें भाग जितने काल अगून्य रहते हैं ।
विशेषार्थ--गाथा में यह स्पष्ट किया है कि कितने स्थान निरंतर बंधते हैं और अनेक जीवों की अपेक्षा कोई एक स्थान कितने काल