Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२
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निरन्तरा ठाणा-निरंतर स्थान, कालो-काल, वुड्ढी-वृद्धि, जवमझयवमध्य, फासणा-स्पर्शना, अप्पबहु-अल्पबहुत्व, दारा-द्वार ।
गाथार्थ-अनुभागबंधस्थानों के बंधक जीवों के विषय में विचार के एकस्थानप्रमाण, अंतरस्थान, निरंतरस्थान, काल, वृद्धि, यवमध्य, स्पर्शना और अल्पबहुत्व ये आठ द्वार हैं।
विशेषार्थ-अनुभागबंधस्थानों को बांधने वाले जीवों के विषय में आठ अनुयोग द्वार क्रमश: इस प्रकार हैं--१. एकस्थानप्रमाणएक-एक रसबंधस्थान के बंधक जीवों का प्रमाण, २ अन्तर स्थानरसबंधस्थानों में बांधने वाले जीवों की अपेक्षा कितने स्थानों का कम से कम और अधिक से अधिक अंतर पड़ता है, ३. निरंतर स्थान-कितने स्थानों को बिना अंतर के बांधते हैं, ४. कालप्रमाण-नाना जीवों की अपेक्षा कोई भी एक अनुभागस्थान कितने काल तक बंधता है, ५. वृद्धि-किस क्रम से अनुभागस्थानों को बांधने वाले जीवों की वृद्धि होती है, ६. यवमध्य-अधिकसे-अधिक कालमान वाले स्थानों को बताना, ७. स्पर्शना-उन-उन कालमान वाले स्थानों को अनेक जीव कितने काल तक स्पर्श करते हैं, ८. अल्पबहुत्वप्ररूपणा-आगे-पीछे के कालमान वाले स्थानों को स्पर्श करने वाले जीवों के अल्पाधिक्य का विचार करना । इस प्रकार से अनुभागबंधस्थानों के बंधक जीवों की प्ररूपणा करने के ये आठ द्वार हैं।
यथाक्रम कथन करने के न्यायानुसार सर्वप्रथम एकस्थानप्रमाण का निर्देश करते हैं। एकस्थानप्रमाण
एक्कक्कमि असंखा तसेयराणतया सपाउग्गे। एगाइ जाव आवलि असंखभागो तसा ठाणे ॥६॥ शब्दार्थ-एक्केक्कमि-एक-एक में, असंखा-असंख्यात, तसेयराणतयात्रस से इतर (स्थावर) अनंत, सपाउग्गेस्वप्रायोग्य, एगाइ-एक से लेकर,