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पंचसंग्रह : ६ ३. संख्येयभागवृद्ध–पूर्व-पूर्व के अनुभागबंध के स्थानों के स्पर्धकों को उत्कृष्ट संख्यात द्वारा भाग देने पर जो आये वह संख्यातवां भाग यहाँ ग्रहण करना चाहिये । उस संख्यातवें भाग अधिक स्पर्धक वाले जो रसस्थान हों वे संख्यातभागवृद्ध रसस्थान कहलाते हैं। अर्थात् जो स्थान संख्यातभागवृद्ध स्पर्धक वाला होता है, उसमें उससे पूर्व के स्थान में जितने स्पर्धक होते हैं, उसे उत्कृष्ट संख्यात में भाग देने पर जितने आयें उतने स्पर्धक अधिक होते हैं। इस प्रकार जहां-जहां संख्यातभागवृद्ध हो, वहां-वहां उससे पूर्व के स्थान के स्पर्धकों को उत्कृष्ट संख्यात द्वारा भाग देने पर जितने आयें उतने से अधिक है, ऐसा समझना चाहिये।
४. संख्यातगुणवृद्ध–संख्यातगुणवृद्ध यानि पूर्व के रसबंध के स्थान के स्पर्धकों को उत्कृष्ट संख्यात से गुणा करने पर जो राशि प्राप्त हो, उतने जानना । अर्थात् जो स्थान संख्यातगुणवृद्ध स्पर्धक वाला हो, उसमें उससे पूर्व के स्थान में जितने स्पर्धक हों उन्हें उत्कृष्ट संख्यात द्वारा गुणा करने पर जितने हों उतने स्पर्धक होते हैं। इस प्रकार जहां-जहां संख्यातगुणवृद्ध आये वहां-वहां इसी प्रकार के संख्यातगुणवृद्ध समझना चाहिये।
५. असंख्यातगुणवृद्ध-यानि पूर्व के स्थान के स्पर्धकों को असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण राशि से गुणा करने पर जितने हों उतने जानना चाहिये । यानि जो स्थान असंख्यातगुणवृद्ध होता है, उसमें उससे पूर्व के स्थान के स्पर्धकों को असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण राशि से गुणा करने पर जितने आयें, उतने स्पर्धक होते हैं। इस प्रकार जहां कहीं भी असंख्यातगुणवृद्ध हो, वहां-वहां पूर्व-पूर्व के स्थान के स्पर्धकों को असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण राशि द्वारा गुणा करने पर जो स्पर्धक आयें, उतने स्पर्धक होते हैं, ऐसा जानना चाहिये।
६. अनन्तगुणवृद्ध-अर्थात् पूर्व के स्थान के स्पर्धकों को सर्वजीव जो अनन्त हैं, उनसे गुणा करने पर जो राशि आये, वह । यानि जो स्थान