Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५५,५६
१३५
करने पर तीन कंडकघन होते हैं, और कंडक को कंडक से गुणा करने पर कंडकवर्ग होता है और उसमें अंतिम असंख्यात गुणवृद्ध स्थान के बाद के कंडकवर्ग वर्ग, तीन कंडकघन, तीन कंडकवर्ग और कंडक जितने स्थानों को जोड़ने पर कुल मिलाकर आठ कंडकवर्ग वर्ग, छह कंडकघन, चार कंडकवर्ग और एक कंडक अनन्तभागवृद्ध स्थान होते हैं ।
इस प्रकार चतुरंतरित मार्गणा का आशय जानना चाहिये । सुगम बोध के लिये उक्त समग्र कथन का सारांश इस प्रकार है
अनन्तर मार्गणा - कंडक प्रमाण |
एकान्तरित मार्गणा - कंडक वर्ग, कंडक प्रमाण ।
द्वयंतरित मार्गणा - कंडकघन, दो कंडकवर्ग, कंडक प्रमाण । त्र्यंतरित मार्गणा - कंडकवर्ग-वर्ग, कंडकघनत्रय, कंडकवर्गत्रय, कंडक प्रमाण ।
चतुरंतरित मार्गणा - आठ कंडक वर्ग वर्ग, चार कंडकवर्ग, छह कंडकघन, कंडक प्रमाण ।
इस प्रकार से अधस्तन स्थान प्ररूपणा जानना चाहिये | अब वृद्धि आदि प्ररूपणा का कथन करते हैं ।
वृद्धि आदि प्ररूपणा त्रय
१
परिणामपच्चएणं एसा नेहस्स छव्विहा वुड्ढी । हाणी व कुणति जिया आवलिभागं असंखेज्जं ॥ ५५ ॥ अंतमुत्तं चरिमा उ दोवि समयं तु पुण जहन्त्रेणं । जवमज्झविहाणेणं एत्थ विगप्पा बहुठिइया ॥५६॥
शब्दार्थ -- परिणामपच्चएणं - परिणामों के निमित्त से, एसा —– यह,
असत्कल्पना से अधस्तनस्थान प्ररूपणा का स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये |