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पंचसंग्रह : ६
पर्यन्त नोकषाय वेदनीय के नौ भेद हैं। इस प्रकार चारित्रमोहनीय की कुल मिलाकर पच्चीस प्रकृतियां हैं। जिनमें से संज्वलन कषाय चतुष्क और नवनोकषाय देशघातिनी प्रकृतियां हैं। शेष अनन्तानुबंधि क्रोध से प्रत्याख्यानावरण लोभ पर्यन्त बारह कषायें सर्वघातिनी हैं। ____ अतएव मोहनीय कर्म के मूल भाग में के सर्वघाति योग्य सर्वोत्कृष्ट रस वाले दलिक दो भागों में विभाजित हो जाते हैं । उसमें से एक भाग मिथ्यात्वमोहनीय को और एक भाग सर्वघाति आदि की बारह कषायों को प्राप्त होता है।
शेष मूल भाग के पुनः दो भाग होते हैं । उसमें से एक भाग कषायमोहनीय की देशघाती संज्वलन कषाय चतुष्क को और एक भाग नोकषाय मोहनीय को मिलता है। जो भाग कषायमोहनीय को प्राप्त होता है, उसके चार भाग होकर एक-एक भाग संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ में बंट जाता है तथा नोकषायमोहनीय को जो भाग प्राप्त होता है उसके पांच भाग होकर तत्काल बंधने वाली हास्य-रति अथवा अरति-शोक युगल में से एक युगल, तीन वेद में से एक वेद और भय एवं जुगुप्सा इन पांच को मिलता है। इसका कारण यह है कि बंधने वाली प्रकृतियों को ही भाग मिलने से नोकषायमोहनीय को प्राप्त होने वाले दलिक के पांच भाग होते हैं ।
इसी प्रसंग में अन्य अघाति और अन्तराय प्रकृतियों के भी दल विभाग का संकेत करते हैं
स्थिति के अनुसार नामकर्म को जो भाग प्राप्त होता है, वह सब भाग गति, जाति, शरीर, बंधन, संघातन, संहनन, संस्थान, अंगोपांग, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, आनुपूर्वी, विहायोगति, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, निर्माण, तीर्थंकर, त्रसस्थावर, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिरअस्थिर,शुभ-अशुभ, सुस्वर-दुस्वर, सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति, इतनी प्रकृतियों में से विवक्षित समय में जितनी