________________
११४
पंचसंग्रह : ६
___ पूर्वोक्त प्रकार से योगनिमित्तक प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का वर्णन करने के बाद अब स्थितिबंध और रसबंध का निरूपण करते हैं। उसमें से पहले रसबंध का विचार करते हैं।
रसबंध की प्ररूपणा के पन्द्रह अधिकार हैं
१. अध्यवसाय प्ररूपणा, २. अविभाग प्ररूपणा, ३. वर्गणा प्ररूपणा, ४. स्पर्धक प्ररूपणा, ५. अन्तर प्ररूपणा, ६. स्थान प्ररूपणा. ७. कंडक प्ररूपणा, ८. षट्स्थान प्ररूपणा, ६. अधस्तन स्थान प्ररूपणा, १०. वृद्धि प्ररूपणा, ११. समय प्ररूपणा, १२. यवमध्य प्ररूपणा, १३. ओजोयुग्म प्ररूपणा, १४. पर्यवसान प्ररूपणा और १५. अल्पबहुत्व प्ररूपणा।
क्रमानुसार कथन करने के न्याय से अब अध्यवसाय व अविभाग प्ररूपणा करते हैं। अध्यवसाय, अविभाग प्ररूपणा
जीवस्सज्झवसाया सुभासुभासंखलोकपरिमाणा।
सव्वजीयाणंतगुणा एक्केक्के होंति भावाणू ॥४४॥ शब्दार्थ-जीवस्सज्झवसाया-जीव के अध्यवसाय, सुभासुभ--शुभ और अशुभ, असंखलोकपरिमाणा-असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, सव्वजीयाणंतगुणा-संपूर्ण जीव राशि से अनन्तगुणे, एक्केक्के-एक एक में, होंतिहोते हैं, भावाणु-रसाणु ।
गाथार्थ-जीव के शुभ और अशुभ अध्यवसाय असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं तथा एक-एक परमाणु में सर्व जीवों से अनन्तगुणे भावाणु-रसाणु होते हैं।
विशेषार्थ--रसबंध के कारणभूत जीव के अध्यवसाय कितने होते हैं और प्रत्येक कर्म परमाणु में कम से कम भी कितनी रस शक्ति सम्भव है ? ग्रंथकार आचार्य ने इन दोनों का स्पष्टीकरण यहां किया है।