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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३
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प्रकृतियां बंधती हैं, उन-उनको भाग प्राप्त होता है। किन्तु वर्णचतुष्क को जो भाग प्राप्त होता है वह वर्णादि के अपने-अपने पांचपांच, दो और आठ अवान्तर भेदों में विभाजित हो जाता है । क्योंकि प्रतिसमय वर्णादि प्रत्येक की अवान्तर प्रकृतियां बंधती रहती हैं। संघात और शरीर नाम के भाग में जो दलिक जाते हैं, वे उस समय बंधने वाले तीन शरीर और तीन संघातन अथवा चार शरीर और चार संघातन नाम कर्म में विभाजित हो जाते हैं। बंधननामकर्म के भाग में जो दलिक आते हैं, वे सात अथवा ग्यारह भाग में विभाजित हो जाते हैं । जब तीन शरीरों का बंध होता है, तब सात बंधन में और जब चार शरीर का बंधन होता है तब ग्यारह बंधन नाम कर्म के भेदों में वे प्राप्त दलिक विभाजित होते हैं।
स्थिति के अनुसार अंतरायकर्म को जो दलिक प्राप्त होते हैं, उसके पांच भाग होकर दानान्तराय आदि पाँच भागों में विभाजित होते हैं तथा वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म को जो उनका मूल भाग प्राप्त होता है वह सब उस समय बंधने वाली उन-उनकी एक-एक प्रकृति को प्राप्त होता है । क्योंकि वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म की एक-एक ही प्रकृति बंधती है । ___ यह दलिकों का विभाजन पूर्व में बताये गये अल्पबहुत्व के अनुरूप और अनुसार ही होता है।
इस प्रकार से बंधनकरण के प्रसंग में प्रदेशबंध का आंशिक कथन जानना चाहिये। विस्तृत वर्णन बंधविधि नामक पांचवें द्वार में किया जा चुका है अतः जिज्ञासुजन उस वर्णन को वहाँ से जान
लेवें।
१ औदारिक, तेजस, कार्मण अथवा वैक्रिय, तेजस, कार्मण अथवा आहारक, वैक्रिय, तेजस, कार्मण इस प्रकार एक समय में तीन अथवा चार शरीर और उनके संघातन का बंध होता है ।