Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६
इस प्रकार से वर्गणा प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये। इन अनन्त . वर्गणाओं के समुदाय का नाम स्पर्धक है । अतः अब स्पर्धक
और तत्संबंधी विशेष वक्तव्य के रूप में अन्तर प्ररूपणा करते हैं। स्पर्धक, अन्तर प्ररूपणा
दव्वेहि वग्गणाओ सिद्धाणमणंतभाग तुल्लाओ। एयं पढम फडं अओ परं नत्थि रूवहिया ॥४७॥ सव्वजियाणंतगुणे पलिभागे लंघिउं पुणो अन्ना। एवं भवंति फड्डा सिद्धाणमणंतभागसमा ॥४८॥ शब्दार्थ-दव्वेहिं वग्गणाओ-वर्गणाओं के समुदाय, सिद्धाणमणंतभागतुल्लाओ-सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण, एयं-यह, पढम-प्रथम, फड्डस्पर्धक, अओ परं-इससे परे (आगे), नत्थि नहीं है, रूवहिया-एक रूप अधिक वाली, सम्वजियाणंतगुणे-संपूर्ण जीव राशि से अनन्तगुणे; पलिभागे -प्रतिभागों (रसाणुओं), लंघिउं-उलांघने पर, पुणो–पुनः, अन्ना-अन्य वर्गणायें, एवं-इस प्रकार, भवंति–होते हैं, फड्डा-स्पर्धक, सिद्धाणमणंतभागसमा-सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण ।
गाथार्थ-अभव्यों से अनन्तगुण और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्गणाओं के समुदाय का एक स्पर्धक होता है, यह पहला स्पर्धक है । इसके बाद एक रूप अधिक वाली वर्गणायें नहीं हैं। किन्तु
सम्पूर्ण जीव राशि से अनन्त गुण रसाणुओं को उलांघने पर पुनः अन्य वर्गणा होती है। इस प्रकार सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धक होते हैं।
विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में स्पर्धक और अन्तर प्ररूपणाओं के आशय को स्पष्ट किया है। उनमें से स्पर्धक प्ररूपणा इस प्रकार
प्रथम वर्गणा अर्थात् जिसमें कम-से-कम भी संपूर्ण जीवराशि से