________________
११८
पंचसंग्रह : ६
स्वभाव को उत्पन्न करता है तथा कार्मण वर्गणा में उस-उस प्रकार का परिणाम होने का स्वभाव है जिससे यह सब बन सकता है।
यही अविभाग-रसाणु प्ररूपणा का आशय है। इस विषय में अब जिज्ञासु अपना प्रश्न प्रस्तुत करता है
एकज्झवसायसमज्जियस्स दलियस्स कि रसो तुल्लो। नहु होति गंतभेया साहिज्जते निसामेह ॥४५॥ शब्दार्थ-एकज्यवसायसमज्जियस्स-एक अध्यवसाय से ग्रहण किये हुए, दलियस्स-दलिक का, किं-क्या, रसो-रस (अनुभाग शक्ति), तुल्लोतुल्य, नहु-नहीं, होति-होते हैं, गंतभेया-अनन्त भेद, साहिज्जते-उन साध्यमान भेदों को, निसामेह-सुनो।
गाथार्थ—एक अध्यवसाय से ग्रहण किये हुए दलिक का रस क्या तुल्य होता है ? नहीं, उसके अनन्त भेद हैं, उन साध्यमानकहे जाने वाले भेदों को सुनो।
विशेषार्थ-गाथा के पूर्वार्ध में जिज्ञासु का प्रश्न है और उत्तरार्ध में विशद् स्पष्टीकरण के साथ उत्तर दिया है।
जिज्ञासु का प्रश्न यह है-विवक्षित समय में किसी भी एक अध्यवसाय द्वारा ग्रहण की गई अनन्त वर्गणाओं के प्रत्येक परमाणु में क्या रस (अनुभाव शक्ति) समान होती है-"दलियस्स कि रसो तुल्लो " ?
आचार्य उत्तर देते हैं—'नहु, होंति णंतभेया' आयुष्मन् ! ऐसी बात नहीं है । वह रस तुल्य नहीं होता है, न्यूनाधिक होता है और उसमें अनन्त विभिन्नतायें होने से अनन्त-अनन्त भेद होते हैं । वे अनन्त भेद कैसे होते हैं ? इसको वर्गणा प्ररूपणा के माध्यम से समझाता हूँ और तुम सावधान होकर सुनो-'निसामेह' । वर्गणा प्ररूपणा
सव्वप्परसे गेण्हइ जे बहवे तेहि वग्गणा पढमा । अविभागुत्तरिएहिं अन्नाओ विसेसहीणेहिं ॥४६॥